Friday, March 27, 2020

नवरात्रि दुर्गा स्तुति : हिमांशु गौड़




।।दुर्गास्तुति हिन्दी भावार्थ सहित।।
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चैत्रे सिते प्रतिपदि श्रुतिविद्भिरुक्तम्
नूनं समस्तजगतो रचनाऽभवच्च
तस्मात्सनातनसुधर्मवतां समाजे
सम्मन्यतेऽद्य शुभदं नववर्षसौख्यम्।।१।।



शास्त्रों को जानने वाले लोगों ने कहा है - चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही इस सृष्टि की रचना हुई थी, इसलिए सनातन धर्म-समाज में इसी दिन नया साल मनाया जाता है।


यद्यप्यहो दिशि दिशि भयमद्य भाति
रोगस्य,कोपि गृहतो न बहि: प्रयाति
रे मानवा: गृह इहैव जपन्तु मन्त्रं
दुर्गार्चनं च विधिना निलये चरन्तु।।२।।



जबकि हर एक दिशा में आज कोरोना का डर है , कोई भी घर से बाहर नहीं जा रहा है । लेकिन मेरी बात मानो, अपने घर में ही रहो , और 9 दिन तक लगातार दुर्गा मां के मंत्र का जाप करो और विधिपूर्वक दुर्गा सप्तशती का पाठ करो।


चेदापदां पतति भार उतात्र लोके
चेत्पापपुञ्जपरिदग्धमिदं जगत्स्यात्
चेद्राक्षसै: क्रियत एव विघातनं वा
दुर्गास्तवैस्सकलशान्तिरयन्तु भक्ता:!!३।।



जब-जब इस धरती पर आपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ता है , जब भयानक पापों से यह संसार जल जाता है,  जब राक्षस इस पृथ्वी पर नरसंहार मचा देते हैं , तब दुर्गा देवी के भक्त इस संसार में दुर्गा देवी को बुलाते हैं , उनकी स्तुति करते हैं , और सभी तरह की शांति प्राप्त करते हैं।


ये शङ्करं न पुरुषा क्वचिदर्चयन्ति
ये चण्डिकां न दिवसेषु जपन्ति वापि
ये वक्रतुण्डगणपं न नमन्ति दुष्टा:
भीता: भवन्ति भवसागरवीचिदोलै:।।४।।



जो लोग कभी भी भगवान शंकर की पूजा नहीं करते , जो किसी भी दिन दुर्गा देवी का जाप नहीं करते ! और  वक्रतुंड , गणेश जी भगवान् को तो दुष्ट लोग कभी नमस्कार ही नहीं करते ! वे  जब इस भवसागर की लहरों में उठा-उठा कर पटके जाते हैं , तब डर के मारे वे लोग कांपने लगते हैं।


हे पाशचामरभुशुण्डिकरेऽम्बिके! त्वं
पद्मत्रिशूलपरिघाङ्कुशदण्डहस्ते!
घण्टाध्वनैर्दशदिश: परिगुञ्जयन्ती
शङ्ख्वनैर्हर ममाशु समस्तदु:खम्।।५।।



पाश, चामर , बंदूक , त्रिशूल , ढाल,  अंकुश , दंड , घंटा और शंख कमल धारण करने वाली दुर्गा देवी! आप इन सारी दिशाओं को घंटा बजा-बजा कर की गुंजा देती हो । आप शंख की ध्वनियों से राक्षसों को डरा देती हो । आप मेरा भी दुख दूर करो।


हे सिंहरूढवपुषा रिपुभीतिदात्रि!
हेऽश्रूच्छलद्धृदयभावदयार्द्रचित्ते!
हे शङ्करप्रियतमे! नगदेशवासे!
सौख्यं भराशु हृदये तनुहि प्रकाशम्।।६।।



जब तुम शेर पर चढ़कर क्रोधित होकर आती हो , तो सारे राक्षस डर के मारे भाग जाते हैं !
लेकिन माता, जब भक्तों की आंखों से भक्ति भाव के आंसू टपकते हैं , और हृदय में श्रद्धा भाव जगता है , तो आप बहुत ही दयालु हो जाती हो ! अरे माता! तुम पहाड़ों पर रहती हो ! तुम अपनी भक्ति का सुख मेरे हृदय में भर दो , और मेरे जीवन को प्रकाशित कर दो।



हे भावमज्जितहृदामभिदृष्टरूपे!
श्रद्धागलज्जलसुधाप्रकटैकरूपे!
विद्युन्निभे!दिवि भुवि श्रुतिसन्निधात्रि!
दुर्गे!ददामि हृदयं तव कीर्तिलोके।।७।।



आपको प्राप्त करने का एकमात्र यही रास्ता है - श्रद्धा के कारण टपकते हुए आंसू!
अरी माता ! तुम तो सारे वेदों का सार हो! बिजली की तरह तुम्हारी चमक है । दुर्गा मां ! तुम्हारी कहानियों को सुनने में हीं मैंने अपना दिल लगा दिया है।



हे सौख्यलोकसृजितेष्टगुणाणुपुण्य-
प्राप्येशशेषविदितामरमर्त्यपूज्ये!
वासन्तकान्तसुरभोत्सवसन्मनस्के!
नौमि श्रियान्वितमुखे मखमूलकूले!!८!!



सुखों के लोक को उत्पन्न करने वाला जो इष्ट गुण है, उसके प्रत्येक अणु का पुण्य जिसके द्वारा प्राप्त करने योग्य है, उनके जो स्वामी हैं , और उनसे अवशिष्ट जो जाने गए हैं , ऐसे देवताओं और मनुष्यों से भी पूजनीय माता! बसंत ऋतु में कमनीय सुगंधी के उत्सव में तुम्हारा मन बसता है, ऐसे शोभासंपन्न मुख वाली ! यज्ञों का जो मूल स्वरूप है, उसका किनारा आप पर ही आकर ठहरता है ! मैं आपको नमस्कार करता हूं।


हेरम्बदेवजननि! व्यथनापदान्नो
नष्टायुगोल्लसितहर्षभृतां समूहो,
वायूत्करैरिव विनश्यति मद्द्रुतं यत्
तन्मोदचोदनविधौ भव दत्तनेत्रा!!९!!



हे गणेश की माता! व्यथित करने वाली आपत्तियां, और एक जमाने से उल्लास और हर्ष से भरे हुए तथ्यों को जिसने नष्ट कर दिया, ऐसे मेरे उस दुर्भाग्य को, हवा के झोंको से नष्ट कर देने वाली आप , मेरे उस सुख की प्राप्ति के लिए बस एक क्षण को देख लो।


हे गीतगानलहरीलहरायमाने!
प्रेमार्द्रहार्दिकशिवे! हरितायमाने!
हेमश्रियोल्लसितभूषणधारिताङ्गि!
त्वम्मे भवेश्शुभपथप्रसरायमाना!!१०!!



हे गीत और गानों की लहरी में स्थित माता! प्रेम से गीले भावों से युक्त हृदय वाली! इस धरती पर हरियाली बिखेरने वाली! सोने के आभूषण पहनने वाली! आप ही मेरे शुभ भविष्य के रास्ते को निर्धारित करने वाली हो।


याचै च किं, कथयिता भवताल्लघिष्ठ:
दत्तं त्वयैव सकलं त्विति चिन्तयामि
जानासि किन्न मम चेष्टनवीप्सनानि?
मात:!किमर्थमहमद्य सरामि वाचम्?११??



हे माता ! मैं क्या मांगू ? क्योंकि अपनी इच्छाओं को मांगकर कोई भी मनुष्य लघु ही हो जाता है । और फिर जब सब कुछ आपका ही दिया हुआ हो तो फिर मांगना ही क्या और जो मेरे मांगने योग्य है , वह सभी इच्छाएं , चेष्टा आदि सब आप जानती हैं, तो फिर मैं अपनी जबान खोलूं ही क्यों?


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© डॉ.हिमांशुगौड:
०७/०० दिनान्ते, २६/०३/२०२०, गाजियाबादस्थगृहे।

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