Friday, March 13, 2020

भावश्री : एक संस्कृत काव्य ग्रन्थ



 – डॉ.हिमांशु गौड़
भाषा - संस्कृत
प्रथम संस्करण/फरवरी २०२०
ISBN - 978-81-943558-2-3
पृष्ठ संख्या - १६०
श्लोक संख्या - ८११
प्रतियां - २००/
मूल्य - १२० रुपए मात्र/


भावश्री एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें कवि ने अपने गुरुओं, कवियों, विद्वानों एवं कुछ मित्रों को संस्कृत श्लोकों में निबद्ध पत्र लिखें हैं।

यहां पत्र तो बस नाम मात्र ही है , अपितु विवेचनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो कवि ने प्रतिपद अपनी विद्वत्ता, प्रतिभा, चिन्तन, कल्पनाशक्ति एवं नैकविध ज्ञान का उपस्थापन नानाछन्दोबद्ध कवितात्मक रूप से किया है ।

एवं यहां पत्र का तात्पर्य सिर्फ ये नहीं है कि अपने हाल-चाल लिखना या दूसरे के पूछना , अपितु कवि के हृदय में समय-समय पर उदित विशिष्ट चिंतन का, विशिष्ट भावों का , सामाजिक चेतना का , प्रकृति चिंतन का , समसामयिक स्थिति का , वर्तमान विडंबनाओं का, यहां कवि ने बहुत ही चमत्कारिक पद्धति सें अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए, भावपूर्ण वर्णन किया है ।

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जहां एक तरफ संस्कृत के श्लोकों की छन्दोबद्धता है , वहीं अनेक तथ्यों का बहुत ही कुशलतापूर्ण ढंग से चित्रण करना कवि के वैशिष्ट्य को प्रकट करता है।

 इस भावश्री ग्रंथ में स्थित पत्रों में जो श्लोकरूपी कविताएं हैं , वे ऐसी लगती है जैसे एकान्त-शान्त जंगल में लयबद्ध तरीके से कोई झरना झर-झर करके गिरता हुआ मधुर संगीत को जन्म दे रहा हो ।




इन कविताओं में आपको साहित्यशास्त्रीय तत्त्व प्रचुर मात्रा में मिलेंगे एवं यत्र-तत्र ज्योतिष , तंत्र, व्याकरण, पुराण , भक्ति आदि विषयों से सम्बद्ध तथ्य भी आपको दृष्टिगोचर होंगे । आप इसमें देखेंगे कि किस प्रकार कवि की चिंतनशक्ति, एक विचित्रलोक में विचरण करती है उन्होंने कई बार स्वयं को भी अनेक रूपों में इस काव्य में प्रकट किया है जैसे - 



हिमांशुर्वायुषूद्भ्रान्तो तुभ्यं पत्रं लिखेदहो ।



अर्थात् यहां हिमांशुजी , जो कि खुद ग्रन्थरचयिता हैं वे कह रहे हैं कि हे जैनेन्द्र! यह हिमांशु जो विप्र है, वह स्वप्नों में अनेक लोकों में विचरण करता है ,और मानो हवाओं में उद्भ्रान्त (उत्कृष्टेन भ्रान्तः अर्थात् उड़ता हुआ या वायुशरीर को धारण करके )  तुम्हें यह नैकभावाश्लिष्ट पत्र लिख रहा है ।

 इसी प्रकार कवि ने अनेक स्थानों पर अपने मौलिक एवं अत्यंत विशिष्ट चिंतन का परिचय दिया है !  ऐसा चिंतन, जो हमेशा यही बताता है कि कवि की प्रतिभा अत्यंत विलक्षण एवं सबसे अलग है । जैसे, स्वयं अपने मस्तिष्क में दौड़ते हुए अनेक विचारों के विषय में कवि ने क्या कल्पना की है देखिए - 

अस्मच्चित्तेषु कोsयं नश्शिवो भूत्त्वा प्रवेगवान्।

बिल्वपत्रसोद्गन्धीभूय भूयोsनुधावति।।

अर्थात् बिल्वपत्र की सुगन्धि से कवि को इतना सुखकर अनुभव था, वे इतना बिल्वपत्र की सुगन्ध अपने मनो मस्तिष्क में महसूस करते थे, कि उन्होंने यह कल्पना की -

 हमारे मस्तिष्क में यह कौन है, जो शिव रूपी (कल्याण कारक) विचार दौड़ रहे हैं ,

जो अत्यंत तीव्र गति से कल्पनाओं का प्रवाह है , यह मानो बेलपत्र के रस की सुगंधि से सना हुआ है । यह इस श्लोक का भावार्थ है ।

इस तरह का विशिष्ट चिंतन कवि की कल्पना के विचित्र संसार को दर्शाता है।

यदि साहित्य की दृष्टि से भी देखें तो भी अनेक छंद, अलंकार, रस आदि के प्रयोग से यह भावश्री ग्रंथ अत्यंत रुचिकर एवं पठनीय हो जाता है ।

 व्याकरण शास्त्र के छात्रों के लिए भी यह ग्रंथ मुख्य भूमिका निभाता है क्योंकि कवि ने अनेक प्रकार के प्रत्ययों ,तद्धित, समास कृदन्त तिङन्त इत्यादि का बखूबी प्रयोग किया है, एवं शब्दशास्त्र के छात्रों के लिए एक लाभदायक बात यह भी है कि वे इस ग्रंथ से कर्मवाच्य और कर कर्तृवाच्य तथा भाववाच्य प्रयोग भी सरलता से सीख सकते हैं, क्योंकि कवि ने उनका बहुत्र प्रयोग किया है । अन्वय पद्धति सीखने के लिए भी यह ग्रंथ बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

इस ग्रन्थ में ८११ श्लोक हैं, जिसके कारण इसका स्वरूप विस्तृत हैं । अतः ग्रन्थ में निहित पूर्ण ज्ञान का तो इसका पूर्ण अध्ययन करने के बाद ही पाठक लाभ ले पाएंगे । वस्तुतः यह ग्रन्थ भी स्वयं में किसी महाकाव्य से कम नहीं है ।  जैसे आप देखिए पूर्णचन्द्रशास्त्री विरचित एक महाकाव्य है, जिसका नाम है - अपराजितावधूकाव्यम् , इसमें १० सर्ग हैं एवं पूरे ग्रन्थ में ६०० श्लोक हैं – इस दृष्टि से इस भावश्री ग्रन्थ की महत्ता किसी महाकाव्य से कम नहीं है । यहां किसी कथा के कथानक , या महाकाव्य के नायक-नायिका की तरह किसी पात्र विशेष पर ये सम्पूर्ण ग्रन्थ नहीं टिका है, अपितु प्रत्येक श्लोक एक नए ही भाव, एक नए हर्ष, को लेकर आता है ।  अतः आधुनिक काव्य संसार में इसका विशिष्ट ही महत्त्व है ।



शोधार्थियो के लिए यह ग्रन्थ विशेष रूप से लाभप्रद है । यदि साहित्यशास्त्र के शोधार्थी इस ग्रन्थ का समीक्षात्मक या साहित्यिकदृष्ट्या अनुशीलन करें तो वह बहुत ही नया एवं हितकर रहेगा । क्योंकि समीक्षात्मक अध्ययन में काव्य के अनेक शास्त्रीय तथा सामाजिक व चिन्तनात्मक पक्षों का उद्घाटन अवश्य ही संस्कृतच्छात्रों को विभिन्न चिन्तनों से ओतप्रोत कर भावाब्धि में निमज्जित कर, शास्त्रसेवा में प्रतिष्ठित कर विशिष्ट चिन्तन-पथ में अग्रसर करेगा ।

ऐसा प्रेरक,सौहार्दपूर्ण, भावुक, शास्त्रमहिमासम्पन्न, शैवभा-विभासित ग्रन्थ लिखने के लिए मैं आचार्यवर को हार्दिक धन्यवाद देता हूं, तथा इस भावश्री को प्राप्त कर हम सभी श्रीविमण्डित हों इसी भावना के साथ ग्रन्थ के लिए अशेष शुभकामनाओं सहित -



   पण्डित रघुवरदास शास्त्री
धर्मशास्त्रविभागाध्यक्ष एवं कर्मकाण्डविशेषज्ञ
रामनामी ब्रह्मचर्याश्रम महाविद्यालय गाजियाबाद (उ.प्र.)

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