उसने अपनी संपूर्ण छात्रावस्था एक ही गुरुकुलाश्रम में रहकर गुजारी - प्रथमा से लेकर आचार्य तक।
लेकिन कुछ ऐसे भी विद्यार्थी थे, जिन्होंने मध्यमा के 2 साल बाबा के यहां गुजारे , 2 साल बिहारघाट , 2 साल कर्णवास, 2 साल रामघाट , शास्त्री बनारस के किसी आश्रम से की , और आचार्य हरिद्वार के किसी आश्रम से ।
उससे ऐसा नहीं हुआ।
यद्यपि बहुत बार ऐसी परिस्थितियां आईं कि लगा कि उसे अब यह आश्रम छोड़ना पड़ेगा, लेकिन फिर भी वह यथा-तथा वहीं रहते रहे !
जो एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाने वाले बहुत से छात्र थे , उनसे जब पूछा जाता था कि आप इतने आश्रमों की अदला बदली क्यों करते हैं , तो वे कहते थे - आश्रमाद् आश्रमं व्रजेत् ।
वे यह नहीं जानते थे कि इस पंक्ति का अर्थ अलग है।
जो आज स्वामी मनोजानंद सरस्वती हैं, वो भी उनमें से एक थे ।
उन्होंने भी कई आश्रमों पर अदला-बदली की थी ।
पहले वे मखलानंद बाबा के आश्रम पर रहते थे ,
उसके बाद सीतारामबाबा के आश्रम में जाकर रहने लगे , उनसे ही कुछ मंत्र विद्या के गुर सीखे ।
उसके बाद ननुआ चपरासी के आश्रम में जाकर रहने लगे ।
कभी-कभी वह हनुमान मन्दिर के आश्रम में भी देखे जाते थे ।
जहां के स्वामी जी से उनकी बड़ी घनिष्ठता थी ।
और कर्णवास वाले विशिष्टानंद जी उनको अपना खास शिष्य मानते थे।
विजया-पान, शुष्कविजयापत्रीधूमग्रहणादि अनेक क्रियाएं विशिष्टानंद जी अपने शिष्य मनोजानंद जी के साथ ही किया करते।
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एक बार नर्वर से साइकिल चला कर के स्वामी कटारानंद भी कर्णवास जब पहुंचे,
तो उन्होंने देखा कि विशिष्टानंद स्वामी जी के आश्रम पर ही स्वामी मनोजानंद जी बैठे हैं जो कि उनके परम मित्र थे
फिर क्या था !
दोनों वहां स्थित विजयौषधवृक्षों की तरफ गए !
एवं मर्दितविजयापत्रधूमसेवन के द्वारा उन्होंने उस शाम को और कुछ ज्यादा रंगान्वित किया,
एवं फिर दोनों एक ही साइकिल पर बैठकर नर्वराश्रम की तरफ बढ़े ।
उस समय चरवाहे अपनी बकरियों को लेकर अपनी मंज़िल की तरफ लौट रहे थे।
कटारानंद साइकिल चला रहे थे और स्वामी मनोजानंद जी पीछे बैठे हुए थे ।
कटारानंद ने उनसे बताया कि कल मैंने जिस जजमान का पूजन कराया , उसने गणेशपूजन में ही कम से कम डेढ़ सौ रुपए चढ़ा दिए थे।
मनोजानंद जी बोले- " हमें भी एक बार प्रबलजीमहाराज के यज्ञ में ले चलो " , वृंदावन, कर्णवास, बनारस , सब विद्यार्थी उसमें जाते हैं , लेकिन हमारा तो सूची में नंबर ही नहीं आता।
कटारानंद ने कहा- अजीब बात है ! कोई तो जान-बूछ कर यज्ञ में जाता नहीं है , और जो जाना चाहता है ,उसका सूची में नाम नहीं है !
मनोजानंद आश्चर्य से बोले - "ऐसा कौन है जो वहां पर जाना नहीं चाहता",
श्यामबाबा के आश्रम पर जो रहते हैं - स्वामी धर्मानंद ,
वे कभी जाते नहीं !
क्योंकि उनके द्वारा अनेक अनुष्ठानकारक यजमान अर्जित किये गये हैं।
विजयापत्रीधूमसेवन के बाद भी स्वामी मनोजानंद इस बात से उदास हो गए थे ,कि हमारा नाम यज्ञ की बनाई गई लिस्ट में नहीं है ।
वे दोनों साइकिल चलाते-चलाते कॉलोनी के गेट पर पहुंच गए थे , तभी उन्होंने देखा कि सामने से कंधे पर झोला लटकाए स्वामी प्रतीकानंद आ रहे हैं !
स्वामी प्रतीकानंद मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले थे ,
लेकिन अपने वैरागी स्वभाव के कारण इस अल्प आयु में उन्होंने स्वामित्व धारण कर लिया था और बाबा की शरण में दीक्षा लेकर नर्वराश्रम में वास किया।
स्वामी कटारानंद भी यद्यपि राजस्थान के ही मूलनिवासी थे, लेकिन वरिष्ठता के मामले में कटारानंद प्रतीकानंद से काफी ज्यादा थे।
दोनों एक ही नरवराश्रम में रहने के कारण बड़ा ही प्रेम मानते थे।
शिष्टाचार प्रणाम के बाद स्वामी मनोजानंद का उतरा हुआ चेहरा देखकर प्रतीकानंद ने पूछा- "स्वामी ! तुम्हारी उदासी का कारण क्या है ?
वे बोले - ना तो मुझे कोई भंडारों में बुलाता है और ना ही प्रबलजीमहाराज की यज्ञ की लिस्ट में मेरा नाम कभी रहता है!
प्रतीकानंद ने कहा -
"महात्मा तुम मत होओ जरा भी उदास ,
कल फिर भंडारा होगा - आत्मानंद आश्रम के पास!"
स्वामी प्रतीकानंद की इस वाणी को सुनकर, स्वामी मनोजानंद जी एक विशिष्ट आनंद से भर उठे,
और उन्होंने रात्रि में भोजन ना करने की ठानी , क्योंकि अगले दिन बहुत ज्यादा भोजन करने की उनकी इच्छा थी।
अभी अपनी झोपड़ी पर करेंगे क्या ?साग-पात उबालकर खाएंगे!
अगले दिन भंडारे में खीर और पूड़ी और गोभी की सब्जी भी मिलेगी ,
इसलिए प्रतीकानंद की सुनाई हुई इस शुभ सूचना के कारण मनोजानंद की यह शाम काफी अच्छीे हो गई थी।
.......
......
एक ठंडी रात !
मनोजानंद के पास सिर्फ एक हल्का सा कंबल ही था जो कि 5 साल में काफी झीना हो गया था,
स्वामी विशिष्टानंद जी ने न जाने कितनी बार उनसे कहा था कि हमसे कंबल ले लो , लेकिन मनोजानंद जी अपने गुरु से कंबल लेना नहीं चाहते थे , क्योंकि वे जानते थे कि गुरुजी के पास तो खुद ही एक कंबल है!
रात के 12:00 बजते-बजते स्वामी मनोजानंद की नींद खुल गई !
बाहर उनकी झोपड़ी के आसपास कुछ कुत्ते भी भौंक रहे थे ।
स्वामी मनोजानंद ने रात में भोजन भी नहीं किया था, इसलिए वे अपनी झोपड़ी से बाहर निकले और आसपास से कुछ कागज लकड़ी वगैरह इकट्ठा किए ।
और आग 🔥 जला कर बैठ गए और उस पर हाथ तापने लगे, कुछ कुत्ते भी उनके पास आकर ही बैठ गए!
वहां के कुत्ते 🐕🐕 भी स्वामी जी से बड़ा प्रेम मानते थे , क्योंकि स्वामी जी स्वयं भूखे पेट रहकर भी अपना भोजन कुत्तों को ही खिला दिया करते थे।
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......
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.....................................ज़ारी है।
#हिमांशु_गौड़_द्वारा_लिखित_कहानी
✍✍✍
स्वामी मनोजानंद जी साइकिल में तेज-तेज पेंडल मार रहे थे और जल्दी से जल्दी भंडारे में पहुंचने की कोशिश में थे ।
और आखिरकार वे आत्मानंद आश्रम पहुंच ही गए।
वहां उन्होंने देखा कि पहले से भी बहुत से महात्मा भंडारा-प्रसादी के लिए वहां आए हुए हैं ,
और "हर हर महादेव शंभो, काशी विश्वनाथ गंगे" भजन को गा रहे हैं ।
उनमें से कोई महात्मा निरंकारी परंपरा का था, कोई निर्मोही एवं कोई जटाधारी और बहुत से दंडी स्वामी भी थे।
कुछ उन महात्माओं के बीच सफेद वस्त्र धारण करने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारी लोग भी थे। उनमें से अधिकतर महात्मा 50 से ऊपर की उम्र के बूढ़े थे !
लेकिन 10-15 महात्मा कम उम्र के भी थे।
उन्होंने ज्यादातर गेरुआ, लाल, पीले एवं सफेद वस्त्र धारण कर रखे थे।
स्वामी मनोजानंद जी ने भी एक पीले रंग का कुर्ता और गेरुआ रंग का कटिवस्त्र पहन रखा था ।
उनके कंधे पर उनका एक पुराना झोला लटका हुआ था , जिसमें वे हमेशा अपना एक चिलम और चिमटा रखते थे।
उनके गले में अपने गुरु की दी हुई तुलसी-माला हमेशा ही पड़ी रहती थी।
और माथे पर लगा रहता था - गंगाजी की मिट्टी का तिलक!
मनोजानंद ने भी अपना कमंडल वही रख दिया और चिमटा बजा बजाकर , वे भी इस भजन को गाने लगे।
फिर भंडारा खाने के बाद उन्होंने देखा तो स्वामी कटारानंद उनकी तरफ बढ़े चले आ रहे थे।
उन्होंने कहा - श्रीप्रबलजी महाराज के यज्ञ की लिस्ट में इस बार तुम्हारा भी नाम है ,
और यह यज्ञ, इस बार कुंभ के मेले हरिद्वार में होगा।
एक साथ दो-दो खुशी मनोजानंद जी सहन नहीं कर पाए और वे वहीं नाचने लगे !
अपने मित्र और गुरुभाई मनोजानंद की प्रसन्नता को देखकर कटारानंद बहुत खुश हुए।
इतने में आश्रम के अंदर से निकलकर स्वामी प्रतीकानंद आए जिन्होंने गोभी की सब्जी कुछ ज्यादा खा ली थी एवं ।
स्वामनंद ने चूंकि रात में भी भोजन नहीं किया था , इसलिए उन्होंने ३५ कुल्हड़ खीर पी ली थी, और वे जल्दी से जल्दी अपनी झोपड़ी पर पहुंचकर विश्राम करना चाहते थे !
स्वामी कटारानंद बोले - मैं भी तुम्हारे साथ ही चलूंगा ।
इसलिए साइकिल की पिछली सीट पर स्वामी कटारानंद बैठे!
इस बार साइकिल चलाने की बारी थी मनोजानंद की!
प्रतीकानंद अपने दूसरे महात्मा साथियों के साथ पैदल-पैदल ही श्यामबाबा के आश्रम की तरफ बढ़ गए, क्योंकि इस समय उनका निवास वहीं था!
नरवराश्रम ,भाग -३
***"
और अब यह एक ऐसी सुबह थी , जब हरे रंग के घोड़ों वाले भगवान् सूर्य अपने सोने के रथ पर बैठकर, इस संसार को प्रकाशित करते हुए , पूरब दिशा में अपने समूचे वैभव के साथ प्रकट हो गए थे !
और नरवर में श्री श्याम बाबा की कुटिया में स्थित उपवन में हरे-हरे केलों के पत्तों के बीच ,स्वाति नक्षत्र की बूंदों से पैदा हुआ कपूर अपनी सुगंध बिखेर रहा था !
जहां बगीचे में कहीं नेवले भाग रहे थे !
कहीं गुलाब के बागों में सांप लहरें ले रहे थे!
और कहीं हनुमान जी के मंदिर में हनुमान चालीसा का पाठ हो रहा था !
कहीं दूर से शंख की ध्वनि सुनाई दे रही थी!
और कहीं से हर हर गंगे का स्वर सुनाई दे रहा था !
उसी वक्त शास्त्रों की चेतना में अपने को समाहित किए हुए ,
एक शिवलोक की प्रभा से ओतप्रोत विचार शक्ति वाले ,
एवं सभी शास्त्रों का तत्व कहने में अत्यंत निपुण श्री बाबा गुरु जी, व्याकरण शास्त्र पढ़ाते हुए कैय्यट का तात्पर्य बता रहे थे।
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उस समय महाभाष्य के अन्तर्गत पाणिनि का सूत्र चल रहा था - "वाक्यादेरामन्त्रितस्यासूयाकोपकुत्सनभर्त्सनेषु"
बाबा गुरु जी ने बताया कि इस सूत्र में वाक्य के आदि का जो आमंत्रित है उसको उदात्त स्वर होता है , यदि असूया,कोप,कुत्सन और भर्त्सन अर्थ गम्यमान हो।
यहां भाष्य में पक्ष उठाया गया है कि जब कोप होता है तभी तो भर्त्सना होती है बिना कोप के भर्त्सना कैसे??
श्री बाबा गुरु जी के शिष्य स्वामी प्रतीकानंद ने अगली पंक्तियां पढ़ते हुए भाष्य में लिखे हुए श्लोक को सुनाया -
" गुरवो हि हितैषित्वादकुप्यन्तोपि भर्त्सनम्।
---निर्देशस्सूत्रकारेण विहितस्सूक्ष्मबुद्धिना।।"
जिसका गुरु जी ने तात्पर्य बताया कि
बिना कोप और कुत्सा (दुर्भाव) के भी गुरुजन शिष्यादियों को भर्त्सना अर्थात डांट-फटकार देते रहते हैं, इसलिए सूत्रकार ने कोप, कुत्सन और भर्त्सन का सूक्ष्मबुद्धि से अलग अलग निर्देश किया है।
लेकिन अभी तक भी स्वामी कटारानंद कुछ सोचने की मुद्रा में थे ,
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इसलिए बाबाजी ने उनके भावों को समझते हुए कैय्यट की पंक्तियों को सुनाया और उनका भावार्थ बताया -
"सामृतै: पाणिभिर्घ्नन्तो ____
"मतलब गुरु लोग अगर आपकोे थप्पड़ भी मार रहे हैं , तो मानो उनके थप्पड़ में अमृत है, जिससे कि आपका उज्जवल भविष्य ही बनेगा !
इसलिए बिना गुस्से के भी वह जो डांटना-फटकारना है वह कल्याणकारी है , इसलिए इस सूत्र में "कोप" और "भर्त्सन" इन दोनों का अलग-अलग निर्देश किया गया है।
कैय्यट के इस भावार्थ को समझते ही स्वामी कटारानंद जी नव्यतापन्न हुए।
महाभाष्य के इस पाठ के बाद वेदांतसार का पाठ शुरू हुआ जिसे शास्त्री लोग पढ़ रहे थे और बाबा गुरु जी लेटे-लेटे ही पढ़ा रहे थे।
इस समय पंचीकरण सिद्धांत चल रहा था जहां पर चर्चा चल रही थी कि कैसे पंच तन्मात्राओं में अलग अलग भूतों के समावेश से यह पंचमहाभूत सृष्टि उत्पत्ति में सक्षम हुए।
"द्विधा विधाय चैकैकं चतुर्धा प्रथमं पुनः।
स्वस्वेतरद्वितीयांशैर्योजनात्पञ्च पञ्च ते।।"
मतलब वेदांत में यह कल्पना की गई है कि जब वायु शुद्ध वायु थी, अग्नि शुद्ध अग्नि थी, पृथ्वी शुद्ध पृथ्वी थी,
मतलब अलग अलग महाभूत अलग-अलग महाभूतों में शामिल नहीं थे , तब उनसे सृष्टि प्रक्रिया कराने हेतु अलग-अलग भूतों का अलग-अलग भूतों में समावेश हुआ , वह किस मात्रा में हुआ इसको इस श्लोक में बता रहे हैं ।
इसमें बताया गया है की यदि 100% वायु है तो उसमें 50% वायु को हटा दो , तो 50% बची! उसमें 12:50 प्रतिशत अग्नि , 12:50 प्रतिशत पृथ्वी , 12:50 प्रतिशत जल , और 12:50 प्रतिशत आकाश मिला दो इस तरह से यह सृष्टि का उत्पादक एक मिलित भूत हुआ।
इसी तरह से अन्य , अग्नि , पृथ्वी आदि के संबंध में भी करना चाहिए।
इस तरह से यह मिले हुए महाभूत सृष्टि के उत्पादन में सहायक होते हैं मतलब पंचमहाभूत और पंचतन्मात्राएं इनमें फर्क
यही है कि तन्मात्राएं शुद्ध होती हैं और महाभूत मिलित होते हैं ।
कटारानंद जी ने पूछा गुरुजी! मैं समझा नहीं!
क्या जल में आग भी मिली हुआ होता है? क्या जल में आकाश भी मिला हुआ होता है?
क्या पृथ्वी में अग्नि भी मिली हुई होती है?
मतलब इस श्लोक के अनुसार आजकल जो हमें यह महाभूत दिखाई दे रहे हैं , इनमें 12:50-12:50 प्रतिशत चार अन्य महाभूत भी शामिल हैं , और 50% वह स्वयं है तो अन्य महा भूतों की अनुभूति हमें उस महाभूत में कैसे नहीं होती ? हे गुरु जी मैं यह जानना चाहता हूं!
बाबा गुरु जी बोले-तुमने देखा पानी गर्म है, गर्म तो अग्नि का गुण है ,फिर वह पानी में कैसे? तुमने देखा गंगा जी की लहरों की खूब तेज तेज आवाज हो रही है , जबकि शब्द आकाश का गुण है , वह पानी में कैसे? पृथ्वी , जल, अग्नि - ये भी स्पर्श से जाने जाते हैं , जबकि स्पर्श वायु का गुण है !
अब आप कहोगे कि गंगा जी की लहरों का जो शोर करना है , वह वेग और वायु की गति के कारण है ! तो यह ठीक है !
परंतु सही बात यही है कि , जल में आकाश का भी तत्व निहित है! जल में अग्नि का भी तत्व निहित है ! पृथ्वी अग्नि, आकाश , जल आदि में वायु का भी तत्व निहित है! तभी तो यह सब स्पर्श के द्वारा अनुभूत होते हैं।
यह बात कटारानंद के समझ में आ चुकी थी।
अभी वेदांत का पाठ चल ही रहा था, कि तभी एक विद्यार्थी अंदरूनी कमरे में से निकल कर आया और बोला- गुरुजी दिल्ली वाले लाला जी का फोन आया है!
उस समय मोबाइल फोन नहीं होता था अतः लैंडलाइन फोन सुनने के लिए अंदर ही जाना पड़ता था।
गुरुजी तख्त पर से उठे और अंदर पहुंचे -
"हां जी हर हर महादेव"
"गुरु जी प्रणाम!" "मैं लाला धनपत राय बोल रहा हूं !"
"हां जी लालाजी! कहो कैसे फोन किया"
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------------------- जारी है।
#नरवराश्रम
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