१.दान हमेशा पात्र को देना चाहिए (मतलब जो दान में दिए हुए धन आदि का दुरुपयोग ना करें और शास्त्र विहित कर्म से युक्त हो)।
२.दान बहुत ही नम्रता पूर्वक देना चाहिए, अभिमान पूर्वक या अपमान करके दिया हुआ दान बहुत ही निष्फल एवं पाप-पूर्ण हो जाता है !
३.अपने दिए हुए दान का कभी भी बखान नहीं करना चाहिए , क्योंकि अपने किए हुए सत्कर्म को कहने मात्र से ही उसका फल नष्ट हो जाता है ।
४.अपनी भजन-पूजा ज्यादा लोगों को बताना नहीं चाहिए या दिखाना नहीं चाहिए, क्योंकि उससे अपने तपस्वी होने का अभिमान जगता है , और अपने जप-तप को किसी से बताने से भी उसका पुण्य फल नष्ट होता है।
५. जहां तक संभव हो पूजा-पाठ शास्त्र की विधि के अनुसार ही करना चाहिए क्योंकि जो शास्त्र की विधि को छोड़ता है और मनमानी पूजा करता है उसको कोई फल प्राप्त नहीं होता।
६. जो भी कहता है कि श्रद्धा होनी चाहिए विधि विधान का क्या है, तो वे लोग गीता के श्लोक को याद रखें कि श्रद्धा विश्वास तो है ही , साथ में विधि-विधान भी होना चाहिए (यश्शास्त्रविधिमुत्सृज्य....) ।
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आचार्य हिमांशु गौड़
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