Wednesday, April 15, 2020

श्री शिव महिम्न: स्तोत्र



श्रीशिव महिम्न: स्तोत्रम्
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शिव महिम्न: स्तोत्रम् शिव भक्तों का एक प्रिय मंत्र है| ४३ श्लोकों

के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है|

स्तोत्र का सृजन एक अनोखे असाधारण परिपेक्ष में किया गया था तथा शिव को प्रसन्न कर के उनसे क्षमा प्राप्ति की गई थी |
कथा कुछ इस प्रकार है …

एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था| वो परं शिव भक्त था| उसने एक अद्भुत सुंदर बागा का निर्माण करवाया| जिसमे विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे| प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।

फिर एक दिन …

पुष्पदंत नामक के गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहा था| उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया| मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया| अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए |

पर ये तो आरम्भ मात्र था …

बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्यक दिन पुष्प की चोरी करने लगा| इस रहश्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे| पुष्पदंत अपने दिव्या शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहा।

और फिर …

राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला| उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया| रजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पेरो से कुचल दिया| फिर क्या था| इससे पुष्पा दंत की दिव्या शक्तिओं का क्षय हो गया।

तब…

पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था | अपनी गलती का बोध होने परा उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा करा पुष्पदंत के दिव्या स्वरूप को पुनः प्रदान किया |

   
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः .
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ..


हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं| मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूँ जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो| पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं| जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भे अपने यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूँ|

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि .
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ..

हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन ना ही वचन द्वारा ही संभव है| आपके सन्दर्भ में वेदा भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं| आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी की आप आदि अंत रहित परमात्मा का गुणगान कठीण है मैं आपका वंदना करता हूँ|


मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् .
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ..

हे वेद और भाषा के सृजक जब  स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या?  हे त्रिपुरारी, अपने सिमित क्षमता का बोध होते हुए भे मैं इस विशवास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूँ के इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धी का विकास होगा |

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ..

हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं| तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे हे प्रकाशित हैं| आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है| इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फ़ैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है |


किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च .
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ..

हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिस करते हैं| वो कहते हैं की अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इसा श्रिष्टी को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं| वेद ने भी स्पष्ट किया है की  तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता |


अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति .
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ..

हे परमपिता !!! इस श्रृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)| इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य हे की आप पर संसय का कोइ तर्क भी नहीं हो सकता |


त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च .
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ..

विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिय विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं | पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हरा मार्ग आप तक ही पहुंचता है |


महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ..


हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं| पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर,  त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भष्म मात्र है| अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम एश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है| आप इच्छा रहित हीं तथा स्वयं में ही स्थित रहते हैं |

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये .
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ..


हे त्रिपुरहंता !!! इस संसारा के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न माता हैं. कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है| अन्य इसे नित्यानित्य बताते हीं. इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ होती जा रही है |


तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः .
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ..


एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: उपर एवं नीचे की दिशा में गए| पर उनके सारे प्रयास विफल हुए| जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए| क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?


अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् .
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ..

हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका ?  उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे | हे प्रभु ! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था|


अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः .
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ..


हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की| हे महादेव आपने अपने सहज पाँव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया| फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा| वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा| अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका|


यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः .
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ..

हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव  इन्द्रादि देवों से भी अधिक अश्वर्यशाली बन सका ताता तीनो लोकों पर राज्य किया| हे ईश्वर आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?


अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः .
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः ..

देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया| समुद्र से आने मूल्यवान वस्तुएँ परात्प हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बाट लिया| परा जब समुन्द्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही सृष्टी समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए|  हे हर  तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया| वह विष आपके कंठ में निस्किर्य हो कर पड़ा है| विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया| हे नीलकंठ आश्चर्य ही है की ये विकृति भी आपकी शोभा ही बदती है| कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है|


असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः .
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ..

हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही | पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तक्षण ही भष्म करा दिया| श्रेष्ठ जानो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता|


मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् .
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ..

हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हितु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती है, आपके हाथो के परिधि से टकरा कार ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं| विष्णु लोक भी हिल जाता है| आपके जाता के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है| आशार्य ही है हे महादेव  कि  अनेको बार कल्याणकरी कार्य भे भय उतपन्न करते हैं |


वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते .
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ..

आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बिच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती है| पर ये उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टीगोचर होती है| ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है|


रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति .
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ..

ही शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी,  सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया| हे शम्भू इसा वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है| आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?


हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् .
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर  जागर्ति जगताम् ..

जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमाल कम पाया| तब भक्ति भाव से हरी ने अपने एक आँख को कमाल के स्थान पर अर्पित कर दिया| उनकी यही अदाम्ह्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं.

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते .
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ..

हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म -फल का विधान बनाया| आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है | आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं|


क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः .
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ..

हे प्रभु !!! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसा परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है| दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि समलित हुए| फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ| आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्ष्द्म्बेश में क्यों न हो |


प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा .
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ..

एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पे ही मोहित हो गया| जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरु धारण करा भागने की कोशिस की तो कामातुर ब्रह्मा ने भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे| हे शंकर तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा की और कूच किया| आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भगा निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं|

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि .
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ..

हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुई| ये शंका निर्मुर्ल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिस की तो आपने काम को जला करा नाश्ता करा दिया|


श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः .
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ..

हे भोलेनाथ!!! आप स्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं| ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं| तबभी हे स्मशान निवासी आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदाई हे प्रतीत होता है क्योकि हे शंकर आप मनोवान्चिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते|


मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः .
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ..

हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पदाति को अपनाते हैं जैसे की स्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि| इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वो वास्तव में आपही हैं हे महादेव!!!

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च .
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ..

हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नी, जल एवं वायु हैं | आप ही आत्मा भी हैं| हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों |


त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति .
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ..

हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों,  तथा त्रिदेवों को इंगित करता है|  हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, औरो त्रिवेद के समागम हैं|


भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् .
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ..


हे शिव विद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान| हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामो से स्तुति करता हूँ |



नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः .
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ..

हे त्रिलोचन आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी| आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभे कुछ से परे भी |


बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः .
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ..

हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ |  हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूँ| हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सबो का पालन करने वाले हैं| आपको नमस्कार है| आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं| हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूँ |


कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः .
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ..

हे शिव आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित बढता ही जाता है| अपनी सिमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूँ? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूँ |


असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी .
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ..

यदि कोइ गिरी (पर्वत) को स्याही, सिंधु तो दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती  अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है|



असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य .
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ..

इस स्तोत्र की रचना पुश्प्दंता गंधर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है तो गुनातीत हैं |


अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः .
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ..

जो भी इसा स्तोत्र का शुद्ध मन से  नित्य पाठ करता है वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवातुल्या हो जाता है|


महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः .
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ..

महेश से श्रेष्ठ कोइ देवा नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से उपर कोई सत्य नहीं.


दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः .
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ..

दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इसा स्तोत्र के पाठ के सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते |



कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः .
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ..

कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परं भक्त था| अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्या स्वरूप से वंचित हो गया| तब उसने इस स्तोत्र की रचना करा शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्या स्वरूप को पुनः प्राप्त किया |


सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः .
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ..

जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाटा है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है |

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् .
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ..

पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से  परं सुख की प्राप्ति होती है |

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः .
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ..

ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है | प्रभु हमसे प्रसन्न हों|


तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर .
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ..

हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता| हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता  उसको नमस्कार है |


एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः .
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ..

जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है |


श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण .
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ..

पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है | इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है |


इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् ..

इस प्रकार शिव महिम्न स्तोत्र समाप्त हुआ।




Friday, April 10, 2020

व्याकरण महाभाष्य पस्पशाह्निक के कुछ प्रश्न और उनके उत्तर

(1) केषां शब्दानाम् इदम् अनुशासनम्?

उ.-लौकिकानां वैदिकानां च शब्दानाम् इदम् अनुशासनम्।ये शब्दा: लोकानां मुखे सन्ति, ते लौकिका: शब्दा:।यथा गौ: अश्व: पुरुष: इत्यादय:।ये च शब्दा वेदे सन्ति, ते वैदिका: शब्दा: यथा अग्निमीळे पुरोहितम्...।

(2) को नाम शब्द:?

प्रतीतपदार्थको लोके ध्वनि: शब्द इति उच्यते।यस्य ध्वने: अर्थस्य प्रतीति: भवति स: ध्वनि: शब्द:।

(3) किमर्थं शब्दानुशासनम्?(व्याकरणशास्र्तस्य प्रयोजनं किम्?)
रक्षा-ऊह-आगम-लघु-असन्देहा: प्रयोजनानि।एतदर्थं शब्दानुशासनम्।
रक्षा।
व्याकरणस्य अध्ययनेन वेदानां रक्षा भवति अत: व्याकरणम् अध्येयम्।

ऊह:।
वेदमन्त्रेषु सर्वेषां लिङ्गानां वचनानां साक्षाद् निर्देश: नास्ति।सन्दर्भानुसारं लिङ्गे वचने वा परिवर्तनं कृत्वा मन्त्र: पठनीय:।एतत् परिवर्तनं व्याकरणज्ञानं विना न शक्यम्।अत: व्याकरणम् अध्येयम्।अत्र एतद् उदाहरणम्- पुत्र: अपेक्षित: चेत् पुंसवनकर्मणि ...वीरं ददतु मे सुतम्। इत्यन्त: मन्त्र: वक्तव्य:।कन्या अपेक्षिता चेत् स्वतन्त्र: मन्त्र: नास्ति।एतस्मिन् मन्त्रे तथा परिवर्तनं स्वयं करणीयम् – वीरां ददतु मे सुताम् इति।एतदर्थं
सुतशब्दस्य सुतम् इति द्वितीयाविभक्तिरूपम् अस्ति,
सुतशब्दस्य स्त्रीलिङ्गं सुता भवति,
सुताशब्दस्य अपि अत्र द्वितीया विभक्ति: योजनीया,
सुता इति शब्दस्य द्वितीयायाम् एकवचनस्य रूपम् सुताम् इति भवति,
वीरशब्द: सुतशब्दस्य विशेषणम् अस्ति अत: सुतस्य स्थाने भिन्नलिङ्ग: शब्द: योजित: चेत् तदनुकूलं वीरशब्दस्य अपि लिङ्गपरिवर्तनं कार्यम्,
वीरशब्दस्य स्त्रीलिङगे द्वितीयायाम् एकवचनं वीराम् इति भवति,
इति एतावद् व्याकरणज्ञानम् आवश्यकम्।तद्विना ऊह: न शक्य:।एवमूहसामर्थ्यम् अस्माकं भवेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

आगम:
आगम: नाम वेद:।वेदाज्ञा एवमस्ति यद् ब्राह्मणेन षडङ्गाध्ययनं फलाशारहितं करणीयम्।षडङ्गे व्याकरणस्य समावेश: अस्ति अत: अध्येयं व्याकरणम्।

लघु:।
भाषाध्ययनस्य व्याकरणमिति लघुमार्ग:।अतोऽध्येयं व्याकरणम्।

असन्देह:।
व्याकरणज्ञानेन विना वाक्यस्य सन्देहरहितं ज्ञानं न सम्भवति।अत: व्याकरणमध्येयम्।

व्याकरणाध्ययनस्य इमानि अन्यानि प्रयोजनानि सन्ति-
तेऽसुरा:।
असुरा: ‘हेऽरय: हेऽरय:’ इत्यस्य स्थाने ‘हेलय: हेलय:’ इति उक्तवन्त:।अशुद्धोच्चारणेन देवेभ्य: ते पराभूता: इति अस्ति पुराकथा।एवमस्माकमपि पराभव: न भवेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

दुष्ट: शब्द:
दुष्ट: शब्द: स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह|स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रु: स्वरतोऽपराधात्॥
कश्चिद् याजक: इन्द्रस्य घातकं पुत्रम् ऐच्छत्।घातक: नाम शत्रु:।तदर्थं स: यज्ञं चकार।यज्ञे ऋत्विग्भि: इन्द्रशत्रु: इति शब्दस्य उच्चार: तत्पुरुषसमासानुकूल: (इन्द्रस्य शत्रु:) न कृत:, बहुव्रीहि-समासानुकूल: (इन्द्र: शत्रु: यस्य स:) कृत:।पुत्र: जात:।स: अग्रे युद्धे इन्द्रेण घातित:।तथैव प्रार्थितम् आसीद् ऋत्विग्भि:।व्याकरणज्ञानाभावाद् याजक: वञ्चित:।एतादृशं वञ्चनम् अस्माकं न भवेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

यदधीतम्-
यदधीतमविज्ञातं निगदेनैव शब्द्यते।अनग्नौ इव शुष्कैधो न तद् ज्वलति कर्हिचित्॥
अधीतं कण्ठगतम्। अधीतस्य अर्थबोध: नास्ति चेत् तत्सर्वं व्यर्थम्।काष्ठमस्ति परमग्नि: नास्ति चेत् ज्वलनं न भविष्यति, प्रकाश: न भविष्यति।एवम् अधीतमस्ति परं व्याकरणज्ञानं नास्ति चेत् अधीतस्यार्थप्रकाश: न भविष्यति। अधीतस्यार्थप्रकाश: भवेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

यस्तु प्रयुङ्क्ते।–
यस्तु प्रयुङ्क्ते कुशलो विशेषे शब्दान् यथावद् व्यवहारकाले।सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दै:॥
य: व्यवहारकाले शब्दान् योग्यरीत्या प्रयुङ्क्ते, स: जयं प्राप्नोति।य: अपशब्दान् प्रयुङ्क्ते, स: पापं प्राप्नोति।अस्माकं जय: भवेत्, न तु पापमिति अध्येयं व्याकरणम्।

अविद्वांस:।-
आचार्य: यदा आशीर्वचनं वदति, तदा शिष्यस्य नामोच्चारं करोति।तत्र नामोच्चारेऽन्तिम: स्वर: प्लुत: भवेदिति सङ्केतोऽस्ति।ये आचार्या: व्याकरणं न जानन्ति, ते स्वरं प्लुतं कर्तुं न शक्नुवन्ति।शिष्यवृन्दे एतादृशाम् आचार्याणाम् अवहेलना भवति।अस्माकमेवमवहेलना न भवेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

विभक्तिं कुर्वन्ति।–
प्रयाजा नाम केचन मन्त्रा:।तेषामुच्चारणकाले सन्दर्भानुसारं विभक्ति: स्वयं योजनीया।व्याकरणज्ञानं विना एतद् न शक्यम्।अस्माकं स्वयं विभक्तिसामर्थ्यं भवेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

यो वा इमाम्-
य: इमां वाणीं पदश: अक्षरश: स्वरश: च सम्यग्वदति, स: आर्त्वीजीन:।आर्त्वीजीन: नाम उत्तम: याजक:।वयमार्त्वीजीना: भवेम इति अध्येयं व्याकरणम्।

चत्वारि-
महत: देवस्य वर्णनमेवम्-
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा:, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ आविवेश॥
महत: देवस्य चत्वारि शृङ्गानि (नाम-आख्यात-उपसर्ग-निपाता:)
त्रय: पादा: (भूत-वर्तमान-भविष्यत्काला:)
द्वे शीर्षे (नित्य-अनित्यशब्दौ)
सप्त हस्ता: (सप्त विभक्तय:)
देव: त्रिषु स्थानेषु बद्ध: (उरसि कण्ठे शिरसि)
देव: मानवान् प्रविशति
स: महान् देव: अस्माकं शरीरं प्रविशेत् , तेन सहास्माकं साम्यं भवेद् इति अध्येयं व्याकरणम्।

उत त्व:
उत त्व: पश्यन् न ददर्श वाचम् उत त्व: शृण्वन् न शृणोत्येनाम्।उतो तु अस्मै तन्वं विसस्रे जाया इव पत्ये उशती सुवासा॥
अज्ञा: वाणीं शृण्वन्ति, न च सम्यक् शृण्वन्ति।ते वाणीं पश्यन्ति, न च सम्यक् पश्यन्ति(जानन्ति)।ज्ञानिभ्य: तु वाणी देवी स्वयं स्वरूपं विवृत्य दर्शयति। वाणीदेवता अस्मभ्यं स्वयं स्वरूपं दर्शयेदिति अध्येयं व्याकरणम्॥

सक्तुमिव
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।अत्रा सखाय: सख्यानि जानते भद्रा एषां लक्ष्मी: निहिता अधिवाचि॥
मोक्षमार्गे वैयाकरणा: बुद्धिरूपचालन्या वाणीं शुद्धां कृत्वा परस्परं स्नेहं दृढं कुर्वन्ति।एतेषां वाण्यां कल्याणकारिणी लक्ष्मी: निवसति।अस्माकमपि वाचि लक्ष्मी: निवसेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

सारस्वतीम्।–
आहिताग्ने: मुखाद्यदि अपशब्द: नि:सरति, तर्हि तेन प्रायश्चित्तं करणीयम्।तदर्थं स: सारस्वतीम् इष्टिं कुर्यादिति याज्ञिका: वदन्ति।एष: प्रायश्चित्तप्रसङ्ग: अस्माकं न भवेदिति अध्येयं व्याकरणम्।

दशम्यां पुत्रस्य।–
याज्ञिका: एवं वदन्ति यद् जातस्य दशमदिनाद् ऊर्ध्वं पुत्रस्य नामकरणसंस्कार: करणीय:। नाम एवं भवेत्- आदिममक्षरं घोषव्यञ्जनं स्यात्।मध्यममक्षरम् अन्त:स्थव्यञ्जनं स्यात्,नाम कृदन्तं स्यात्, तद्धितान्तं न स्यात्, वृद्धं न स्यात्। एतत् सर्वं व्याकरणज्ञानं विना न शक्यमत: अध्येयं व्याकरणम्।

सुदेवोऽसि-
सुदेवोऽसि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धव:।अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्म्यं सुषिरामिव॥
वरुणदेव: सुदेव: अस्ति यत: यथा (अग्नि:)सुषिरां सुन्दरमूर्तिं तथा सप्तविभक्तय: तस्य तालुप्रदेशं (काकुदं) सततं शुद्धं कुर्वन्ति।वयमपि सत्यदेवा: भवेम इति अध्येयं व्याकरणम्।

(4) केभ्य: एतानि व्याकरणस्य प्रयोजनानि प्रतिपाद्यन्ते?
ये खलु वेदाध्ययनं कृत्वा अध्ययनं समाप्तमिति मन्यन्ते, व्याकरणस्य ज्ञानं निरर्थकं मन्यन्ते, तेषां कृते व्याकरणस्य एतानि प्रयोजनानि प्रतिपाद्यन्ते।

(5) शब्दानुशासनं कथम्? शब्दोपदेशेन अथवा अपशब्दोपदेशेन?
शब्दानुशासनं शब्दोपदेशेन क्रियते।अयं लघु: मार्ग:।एकस्य एकस्य शब्दस्य बहव: अपभ्रंशा: सम्भवन्ति अत: अपशब्दोपदेश: दीर्घ: मार्ग:।

(6) प्रतिपदं शब्दानुशासनं भविष्यति वा?
न। तथा हि सति सकलम् अपि आयु: अध्ययनेन एव यातं स्यात्।अत: उत्सर्गापवादाभ्याम् उपदेश: क्रियते।यथा-
कर्मण्यण् ३.२.१ – उत्सर्ग:
आतोऽनुपसर्गे क:।३.२.३- अपवाद:

(7) शब्द: नित्य: अथवा कार्य:?
शब्द: नित्य: भवतु अथवा कार्य:।तस्य उपदेश: अवश्यं करणीय:।अस्तु, पाणिनिमतेन शब्द: नित्य:।

(8) यदि शब्द: नित्य: ,तस्य अर्थ: नित्य: तयो: मिथ: सम्बन्ध: नित्य: तर्हि व्याकरणशास्त्रं किं करोति?
शास्त्रं धर्मनियमं करोति।कस्य शब्दस्य प्रयोगेण धर्म: भवति, कस्य प्रयोगेण अधर्म: इति निर्धारणं शास्त्रं करोति।एष: शब्द:।एतस्य प्रयोगेण अभ्युदय:। एष: अपशब्द:।एतस्य प्रयोगेण अभ्युदयहानि: इति अयं धर्मनियम:।

(9)  अप्रयुक्तानां शब्दानां साधुत्वनिर्धारणं कथं भवति?यथा ऊष तेर पेच इत्यादीनाम्।
भवान् एतान् शब्दान् मुखेन वदति, तथापि तान् ‘अप्रयुक्तान्’ इति वदति इति व्याघातदोष: अयम्।ऊष तेर इत्यादीनाम् अर्था: यदा विवक्षिता:, तदा तेषां प्रयोगा: भवन्ति एव।तत्पर्यायाणां प्रयोगे सति एतेषां प्रयोग: न स्यात्। तत्तु स्वाभाविकमेव।यथा ऊष ऊषिता:।तेर तीर्णा:।चक्रे कृतवन्ता:।पेच पक्ववन्त:।
यद्यपि ऊष इत्यादय: शब्दा: प्रचारे न सन्ति, तथापि व्याकरणशास्त्रे तेषां सिद्धि: अवश्यं दर्शनीया।अत्रेदमुदाहरणम्-शतवर्षं यावत् कश्चिद् यज्ञ: प्रवर्तते। तादृशं यज्ञम् इदानीं केऽपि न कुर्वन्ति।तथापि तस्य वर्णनं याज्ञिके भवति। तथापि विरलप्रचाराणां शब्दानामपि सिद्धि: व्याकरणशास्त्रे वक्तव्या।
‘अप्रयुक्ता:’ इति येषां विषये भवान् वदति, ते कदाचित् देशान्तरे ग्रन्थान्तरे वा प्रयुक्ता: स्यु:।यदि तेषाम् उपलब्धौ महान् प्रयत्न: भवति, तर्हि तेषाम् अपि प्रयोगा: प्राप्यन्ते। तादृशं प्रयत्नम् अकृत्वा अकस्माद् ‘अमुकशब्दस्य प्रयोग: न दृश्यते’ इति निर्णयवचनं नोचितम्।

(10)  शब्दानां ज्ञाने धर्म: उत प्रयोगे?
ज्ञानपूर्वके प्रयोगे धर्म:।

(11)  व्याकरणं नाम किम्? सूत्रम् अथवा शब्द:?
सूत्रं तथा तेन साधित: शब्द: इति एतद् द्वयमपि व्याकरणसंज्ञायां समाविष्टम्।
लक्ष्यं नाम शब्द:।लक्षणं नाम सूत्रम्।
लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम्।

(12) वर्णानाम् उपदेश: किमर्थम्?
अ) वृत्तिसमवायार्थ: उपदेश:
वृत्ति: नाम शास्त्रस्य प्रवृत्ति:।शास्त्रस्य प्रवृत्ति: भवतु एतदर्थं क्रमेण अक्षरयोजनम् आवश्यकम्।

आ) अनुबन्धकरणार्थ: उपदेश:
उपदेशस्य आधारेण अनुबन्ध: क्रियते।

इ) इष्टबुद्ध्यर्थ: उपदेश:
आचार्याणाम् इष्टा: (अभिप्रेता:) वर्णा: के इति स्पष्टीकर्तुं वर्णोपदेश: क्रियते।

(13) यदि इष्टवर्णानां स्पष्टज्ञानाय वर्णोपदेश: तर्हि उदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्घप्लुतानां स्वतन्त्रोपदेश: किमर्थं नास्ति?
अ-वर्णे उपदिष्टे सति अ-कारस्य सर्वेषां भेदानां तत्र ग्रहणं भवति अत: स्वतन्त्रोपदेश: न क्रियते।

(14)  अकारस्य उच्चारणेन अकारस्य सर्वे भेदा: तत्र गृहीता: चेत् अकारस्य सदोषा: अपि उच्चारा: गृहीता: वा?
न।गर्गादय: पाठा: ग्रन्थे सन्ति।तत्र सर्वेषां वर्णानां शुद्धमेव उच्चारणम् आचार्येण कृतम्।अत: सदोषोच्चारस्य ग्रहणाय अवसर: एव नास्ति।

(15)  उच्चारदोषाणामपि उपदेश: किमर्थं न क्रियते? इत्संज्ञकानां स्थाने तेषां योजना शक्या।
सत्यमेतत् ।तथापि पाणिने: एतद् नाभिमतम्।अत: उच्चारदोषाणाम् उपदेश: मास्तु।

My Sanskrit poem books : Dr. Himanshu Gaur Sanskrit Writer

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  In 2005-06 (Uttamadhyama first year) I wrote a Sanskrit song -


  "Precise haste destroyed: statement,

  Kopi no vetti va chasya esothyathamatha ".

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  After this, in 2007, I wrote 7 verses on "Sandashtikattattva".


  Then in 2007, I described the battle of a Mahakali with the verses of Panchachamar verses.


  And after that (in 2008–7 only), I filmed the scene of the Ghadar film in the Sanskrit shlokas (Panchachamarchand).


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  - "


  It was only in 2007 that I wrote a Sanskrit Verse letter to a friend.  That friend was a Bhagavata story reader, and the letter was in the Shardul Wikipedia: verses.


  2007-09-10, reading my grammar (Bhashya, Shekhar, Manorama, Kaundabhatta), Vedanta (Vedantasara, Panchadashi, Brahmasutra, Shankarabhashya) Sankhya (Sankhyakarika, Sankhyatatvakomudi) and the Nyasiddhantamuktavali conjecture section (since the direct clauses were read in the middle)  - The time was spent in reading, so there was a disservice by making verses.


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  At that time, my routine had become somewhat messy, when I asked about it, I

  The first line I had narrated to Sri Baba Guru Ji in 2009 was -


  "Not disturbed by all life styles"


  Then Sri Baba Guru Ji gave it to me by making it a complete verse, which I do not remember at the moment.


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  After Shastri's second year (B.A. second year), my routine got messed up, then Baba Guru Ji made a verse about me and threw that leaflet in my room and went away!

  When I picked up that leaflet after some time, it is my only memory of that line -


  Manyesau Youth: Pramadvashtoऽ ....


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  I got some opportunity in 2012, then I wrote verses at that time in many subjects, which was destroyed due to inadvertence and importance.


  "Sriomo Vyakastastra Japanan Yasayte Maya.

  Dispenser Kritva Shatash: ...... "


  I just remembered one verse from that time.


  After that I started writing a diary.


  "Shirobhadanashtakam" I wrote in March 2015 while living in a hostel!


  Delhi was very distracted by the Nirbhaya incident, I was ready to write something on it.


  Then I wrote "Rape Shashtakam" in September 2015, in Kavibhaskar hostel room number 135.


  That day was the birthday of my friend Ankurpandeji.


  "Shirovdhanashatakam" I wrote in two meetings!  That means 75 verses once seated, the next day 35 shlokas sitting for 1:30 hours, like this.


  When everyone was speaking Happy Birthday to You in Ankur Pandey's birthday, at that time, I was sitting and writing "RapeShatkam".

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  What is the reason for the problem of rape in this century?  And what is prevention?  It has been considered in 100 verses.


  These were the days when I had a new identity with Naveen Tiwari, and we used to go to Motu Hotel tea together.


  Then at the same time I also started Sanskrit poetry called "Bhati no Bharatam".  At the same time, I wrote 35 verses continuously.


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  My most important poem "Narvargatha", - I started in Ashwin Navratri 2014,

  I started its primitive "student student" at Gajraula, sitting in the house of my judge, then came to my home and wrote a few verses of "Bhootkand" and "Prakritikand"!  Also wrote a few verses of Vedushyakanda!

  I wrote some verses of domination in 2017!  When I started it, I thought about 14 scandal in it, but then I thought, the scandals themselves are very big, so they should be kept in only 5 scandals.


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  Therefore, these five scandals are the main "students of the world", "Bhoothandaka", "Prakritikanda", "Vaidushyakanda" and "Supremacy".

  See the shloka of ghostland -


  "Spooky Narvarasya F Victims

  Nightfall

  Inward view

  Black gag multifamily.


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  In August 2015, I had started many poems like "Shaivicharcha", "Vidyadarshikavyam" "Jeevanshatakam".

  I had coined the idea of ​​writing "Vidyakhatakam" "Veerashatakam" and "Dhanikashtakam" in July 2014, while at the same time I wrote about 25-25 verses of these three centuries, which are still in my old diary.


  "Amitabhabachanashatakam" "Sansthanshtakam" "" These are my poems written in March 2015,

  At the time Amitabhbachanashatakam was written silently by writing 35 verses and in "Sansthanshtakam" 40 verses.


  After that, I also wrote 20 verses of Amitabh Bachchan century in 2016.  Meaning, I have 60 verses of Amitabh Bachchan century in this way, I have not seen the institution's century ahead of him yet, yet he is still buried in my old papers.


  Yes, Shivlhari I wrote in July 2015.  I just remembered it, why?  Because at the same time I learned typing in Kritidev, and I was sitting on my laptop typing 19 Shlokas of Shiva Lahiri in July 2015.


  The imagination of a poetic book called "Pataladavyandhri" originated in my mind in late 2013.

  This was the name of this book of mine initially.

  I started this book in November-December 2014!

  And at that time when my ability to write shlokas was nothing, even in that period, I wrote 55 shlokas in 2 days, which were in verses like Bhujangaprayat, Indravajra, Upajati, Upendravajra, and even today I have written in a very old diary.  .


  In the month of November 2015, the idea of ​​making two poems of the same (Davyandhar) poetry arose in my mind.

  I thought the name "Pataladaiyavandhri" is a bit big, so the "Daivyandhriakatha" prose and "Daivyandharan Kavyaam" are the phrase, in two ways I did it.

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  After that, write only four-five passages of "Narvarapriyaatyam" prose in 2015 itself.


  This was the same time when I had already written 5 passages of "Daivyandhari-Katha"!

  After that I wrote 2-3 passages of this story in 2017 too!  Oh, I had forgotten that my idea of ​​turning Divyandhar poetry into two prose and poetic divisions was not of 2015 but of 2014 itself.


  Because since then I was writing the character of Divyandhar in both prose and verse.


  I tell you a little story about it.

  Divyandhar, a Brahmin!  One who is a devotee of Shiva!  Skilled at swimming  He is the lecturer of the scriptures and is engaged in tantra practice!

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  Once he is doing sadhana sitting in the deep jungle, then a Yaksini appears and throws him in the forest of Hades.  Where he battles, with a vampire.


  At the time when war is taking place.  At some distance from the same forest, Lord Shiva, who at that time was staying in Hades, visiting 14 worlds.  He came to know about this.

  They reach the city of King Bali.  There King Bali welcomed him.  Then Lord Shiva blessed his devotion by giving vision to Divyandhar.


  In this way it was a completely fictional narrative, which I still postponed after 2015, and is still postponed.

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  In January 2016, the idea of ​​writing "Narishiktikavyam", which was written only a few early verses, due to my research in my life, that poetry could not move beyond that.  I still have his preface and chapter division.


  And yes, the most important thing that I started writing a century, the first thing I thought of in the name was "Naravarshatakam", 15 verses of which I wrote in 2013-14 only.


  Then when I went to the National Sanskrit Sansthan Central University Bhopal campus and met Shri Brij Bhushan Ojha Guru ji for the first time, Shri Om Ji told him that he writes Sanskrit poetry, then he said, "Listen!"

  So I had narrated some verses of "Naravarshatakam".  At that time, he was teaching some students (students) of Acharya sitting in class.

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  There was a boy Deepak, who was 3 classes younger than me in Narwar, but very courageous, ready for immediate war to protect his self-respect!  And he had many such qualities, which can attract a poet's heart.  I thought that a century should be written on this!

  So if you say which other century you started, then I will say that after "Naravarshaktakam" "Deepakshaktakam" was my second century, which is still incomplete (60 verses).

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  So "Deepakshtakam" is the poetry of 2013, which is still in my Facebook memory 7 years ago.  In a way, it also does the same "lamedharpne" lecture.  How was my year in 2016?  You must be thinking this!  So it was my year spent writing many forms of expressions, gospel etc.

  And yes, I forgot one is the product of 2014 - "Kalikamkeli:" - I started writing it in Narwar.


  And its first chapter was written in 2014 itself, then in 2015 I wrote 3 more chapters of it.


  Then kept thinking of writing the fifth chapter, should I write or not?  But now thinking, only four are enough!  Now I will get it printed in a few days!


  Means "Kalikamakeli:" My 2015 poetry is in a way.


  It was January of 2016, at that time I did not know computer typing, settings etc. very well.

  Or even if I knew very little, there is no harm even!

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  I went to Dr. Akhilesh Pandey!  There was a very good Shiva temple near his village, he had to make some shlokas related to the devotion and worship of that Shiva temple, so I went for the same work.


  And then things started to be discussed about his written poems, he said - "Hey Gaud Saab! You have so much poetry, then you should get the Sahitya Akademi Award this year (it was January 2014)!"


  But at that time I had a slight temperament!  I didn't even count anything!  Therefore, I did not pay attention to awards, conferences, seminars, poets' conferences, etc.


  Yes, one more thing !  For those who think, I have written this proverbial poem, not for God, then for those of you, let me tell you how many hymns have been written in 2015-16 and 17 years, and even before, Shiva devotion!

  And it is not that he has stamped the old sources, but he has written his heartfelt feelings for Shiva.  Such as - "Shivasya Prabhavadvayam Singharaja:",.  "Asambhavam Tatakripa Vinayat" "Tvmevasi Shambho" "Bilvapatra Vyam" "Kevalshulpani:" "Bhitosmi" etc. These are all poems for Shiva.


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  Now, if I talk about Tantra, then I wrote the Daivandhar poem itself because of my tantric interest.


  What is the method of Yaksini means?  How should it be done in place?  What is the invisible Karan mantra?  What is Uddish Tantra?  What is Asana Siddhi?  What is the mantra of chained?  What are the characteristics of 14 worlds?  All this talk, which I have gained knowledge, you will find use in this poem.


  Talk about the poetry of 2017, I have now forgotten myself what I wrote at that time, but I had started the "Bhavashree" text at that time, which has been completed even today!

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  The Sanskrit poem titled "Chal Chaipane" was written only in January 2014, which I have put in a book titled "Kavashri:".


  Mandukamod: I wrote in the room number of Bhopal Campus Kavibhaskar Hostel in July 2015, "Nemawarbhramanam," "Sivalahari (Sivastuti)", these are also contained in Kavyashri itself.


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  Bhavashree is a journal collection.  I also had many choices regarding its name.


  At first, I was thinking of its name - "Patrika", but later I named 4 names in 2019 - 1. "Bhavabha:" 2.  "Bhavashree" 3.  "Patrapatram" 4.  "Patrika"!


  Discussed this with Dr. Akhilesh Pandey.  He asked to consider the name "Patrapatram"!  Which asked Sritryambakeshwar Chaitanya Swamiji, then he gave the name Bhavashri as appropriate.  In fact, I too was trying to name "Bhavashree:" and "Bhavabha:", so I thought it appropriate to name "Bhavashri:".


  In February 2020, these four poems have been published - Mere, Bhavashri, Vandyashree and Kavashree and Pitrishtakam.


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  "Pitrishtakam" I wrote in Ashwin Navaratri of 2015.  Which I forgot to mention earlier.



  I started "GaneshShatkam" around March 2015, with 15 verses written at the same time.  Then 10 verses in 2017 and 20 verses in 2019.  So far, it has about 52 verses, I will complete it this month.


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  I have written "Kalpakarashatakam" in the first three days of this last Navratri (2020 Chaitra).



  Write 50 verses to Pratipada, 5 to Dwitiya, and 52 verses to Tritiya, so it has 108 verses, which will print as soon as the lockdown opens.

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  My other poetic works done while living in Bhopal, I will get them published as soon as possible.


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  © Dr. Himanshu Gaur

  Writing Time and Date 09:00 AM, 07/08/2020, Ghaziabad.

Filíocht Sanscrait Rann leis an Dr. Himanshu Gaur




 I 2005-06 (Uttamadhyama an chéad bhliain) scríobh mé amhrán Sanscrait -


 "Scriosadh haste beacht: ráiteas,

 Kopi no vetti va chasya esothyathamatha ".

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 Tar éis seo, i 2007, scríobh mé 7 véarsa ar "Sandashtikattattva".


 Ansin i 2007, rinne mé cur síos ar chath Mahakali le véarsaí véarsaí Panchachamar.


 Agus ina dhiaidh sin (in 2008–7 amháin), rinne mé scannánú ar radharc an scannáin Ghadar sna Sanscrait shlokas (Panchachamarchand).





 - "


 Ba sa bhliain 2007 a scríobh mé litir Sanscrait Verse chuig cara.  Ba léitheoir scéalta Bhagavata an cara sin, agus bhí an litir i Vicipéid Shardul: véarsaí.


 2007-09-10, ag léamh mo chuid gramadaí (Bhashya, Shekhar, Manorama, Kaundabhatta), Vedanta (Vedantasara, Panchadashi, Brahmasutra, Shankarabhashya) Sankhya (Sankhyakarika, Sankhyatatvakomudi) agus léadh an rannán conjecture Nyasiddhantamuktavali (ó na clásail dhíreacha).  - Caitheadh ​​an t-am ag léamh, agus mar sin bhí neamhshuim ann trí véarsaí a dhéanamh.





 Ag an am sin, bhí mo ghnáthamh beagáinín praiseach, nuair a d’fhiafraigh mé de, mise

 Ba é an chéad líne a luaigh mé le Srí Baba Gúrú Ji in 2009 ná -


 "Gan cur isteach ar gach stíl mhaireachtála"


 Ansin thug Sri Baba Gúrú Ji dom é trí véarsa iomlán a dhéanamh dó, rud nach cuimhin liom i láthair na huaire.







 Tar éis an dara bliain de Shastri (an dara bliain B.A.), chuaigh mo ghnáthamh amú, mar sin rinne Baba Gúrú Ji véarsa mar gheall orm agus chaith an bhileog sin i mo sheomra agus d’imigh sí as!

 Nuair a phioc mé an bhileog sin tar éis roinnt ama, is é an t-aon chuimhne atá agam ar an líne sin -


 Óige Manyesau: Pramadvashto ऽ ....


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 Fuair ​​mé roinnt deiseanna in 2012, ansin scríobh mé véarsaí ag an am sin i go leor ábhar, a scriosadh mar gheall ar neamhaireach agus tábhacht.


 "Sriomo Vyakastastra Japanan Yasayte Maya.

 Dáileoir Kritva Shatash: ...... "


 Níor chuimhnigh mé ach véarsa amháin ón am sin.


 Ina dhiaidh sin thosaigh mé ag scríobh dialann.


 "Shirobhadanashtakam" Scríobh mé i mí an Mhárta 2015 agus mé i mo chónaí i mbrú!


 Chuir Delhi eachtra an-aird ar eachtra Nirbhaya, bhí mé réidh le rud éigin a scríobh air.


 Ansin scríobh mé "Rape Shashtakam" i Meán Fómhair 2015, i seomra brú Kavibhaskar uimhir 135.


 Ba é an lá sin lá breithe mo chara Ankurpandeji.


 "Shirovdhanashatakam" Scríobh mé in dhá chruinniú!  Ciallaíonn sé sin 75 véarsa a shuí uair amháin, an lá dar gcionn 35 shlokas ina suí ar feadh 1:30 uair an chloig, mar seo.


 Nuair a bhí gach duine ag labhairt Breithlá Sona Duit i mbreithlá Ankur Pandey, ag an am sin, bhí mé i mo shuí agus ag scríobh "RapeShatkam".




 Cad é an chúis atá le fadhb an éignithe sa chéid seo?  Agus cad is cosc ​​ann?  Tá sé curtha san áireamh i 100 véarsa.


 Ba iad seo na laethanta nuair a bhí féiniúlacht nua agam le Naveen Tiwari, agus ba ghnách linn dul go dtí tae Motu Hotel le chéile.


 Ansin ag an am céanna chuir mé tús le filíocht Sanscrait darb ainm "Bhati no Bharatam".  Ag an am céanna, scríobh mé 35 véarsa go leanúnach.






 An dán is tábhachtaí atá agam "Narvargatha", - thosaigh mé in Ashwin Navratri 2014,

 Thosaigh mé a “mac léinn mac léinn” primitive ag Gajraula, ina shuí i dteach mo bhreitheamh, ansin tháinig mé go dtí mo theach agus scríobh mé cúpla véarsa de “Bhootkand” agus “Prakritikand”!  Scríobh cúpla véarsa de Vedushyakanda freisin!

 Scríobh mé roinnt véarsaí forlámhais in 2017!  Nuair a thosaigh mé é, shíl mé faoi 14 scannal ann, ach ansin shíl mé, tá na scannail féin an-mhór, mar sin níor chóir iad a choinneáil i 5 scannal amháin.






 Dá bhrí sin, is iad na cúig scannail seo príomh "mhic léinn an domhain", "Bhoothandaka", "Prakritikanda", "Vaidushyakanda" agus "Supremacy".

 Féach shloka na dtaibhse -


 "Íospartaigh Narvarasya F Spooky

 Nightfall

 Amharc isteach

 Gobán dubh go ilmhillteach.


 *****

 I mí Lúnasa 2015, bhí go leor dánta tosaithe agam mar "Shaivicharcha", "Vidyadarshikavyam" "Jeevanshatakam".

 Chuir mé le chéile an smaoineamh "Vidyakhatakam" "Veerashatakam" agus "Dhanikashtakam" a scríobh i mí Iúil 2014, agus ag an am céanna scríobh mé thart ar 25-25 véarsa de na trí chéad bliain seo, atá fós i mo shean-dhialann.


 "Amitabhabachanashatakam" "Sansthanshtakam" "" Seo iad mo dhánta a scríobhadh i Márta 2015,

 Ag an am scríobhadh Amitabhbachanashatakam go ciúin trí 35 véarsa a scríobh agus i 40 véarsa “Sansthanshtakam”.


 Ina dhiaidh sin, scríobh mé 20 véarsa de haois Amitabh Bachchan in 2016.  De bhrí, tá 60 véarsa de haois Amitabh Bachchan agam ar an mbealach seo, ní fhaca mé céad bliain na hinstitiúide os a chomhair fós, ach tá sé curtha fós i mo sheanpháipéir.


 Sea, Shivlhari a scríobh mé i mí Iúil 2015.  Níor chuimhnigh mé ach air, cén fáth?  Mar gheall ag an am céanna d’fhoghlaim mé clóscríobh i Kritidev, agus bhí mé i mo shuí ar mo ríomhaire glúine ag clóscríobh 19 Shlokas de Shiva Lahiri i mí Iúil 2015.


 Tháinig samhlaíocht leabhar fileata darb ainm "Pataladavyandhri" i m'intinn go déanach in 2013.

 Ba é seo ainm an leabhair seo agam i dtosach.

 Thosaigh mé an leabhar seo i mí na Samhna-Nollaig 2014!

 Agus ag an am sin, nuair nach raibh aon chumas agam véarsaí a scríobh, fiú sa tréimhse sin, scríobh mé 55 véarsa i 2 lá, a bhí i véarsaí mar Bhujangaprayat, Indravajra, Upajati, Upendravajra, agus fiú inniu scríobhaim i ndialann an-sean.  .


 I mí na Samhna 2015, d’eascair an smaoineamh dhá dhán den fhilíocht chéanna (Davyandhar) a dhéanamh i m’intinn.

 Shíl mé go bhfuil an t-ainm "Pataladaiyavandhri" rud beag mór, mar sin is é an prós "Daivyandhriakatha" agus "Daivyandharan Kavyaam" an abairt, ar dhá bhealach a rinne mé é.





 Ina dhiaidh sin, ná scríobh ach ceithre chúig phíosa de phrós "Narvarapriyaatyam" in 2015 féin.


 Ba é seo an t-am céanna nuair a bhí 5 sliocht de "Daivyandhari-Katha" scríofa agam cheana féin!

 Ina dhiaidh sin scríobh mé 2-3 sliocht den scéal seo in 2017 freisin!  Ó, bhí dearmad déanta agam nár in 2015 féin a bhí mo smaoineamh filíocht Divyandhar a iompú ina dhá rannán próis agus fileata.


 Mar gheall ar sin bhí mé ag scríobh carachtar Divyandhar i bprós agus i véarsa.


 Inseoidh mé scéal beag duit faoi.

 Divyandhar, a Brahmin!  Duine atá ina devotee de Shiva!  Oilte ag snámh  Is é léachtóir na scrioptúir é agus tá sé ag gabháil do chleachtas tantra!





 Chomh luath agus a bhíonn sé ag déanamh sadhana ina shuí sa dufair dhomhain, ansin bíonn Yaksini le feiceáil agus é a chaitheamh i bhforaois Hades.  An áit a ndéanann sé cat, le vaimpír.


 Ag an am nuair a bhíonn cogadh ar siúl.  Ag achar éigin ón bhforaois chéanna, thug an Tiarna Shiva, a bhí ag an am sin ag fanacht i Hades, cuairt ar 14 shaol.  Tháinig sé ar an eolas faoi seo.

 Sroicheann siad cathair Rí Bali.  Chuir Rí Bali fáilte roimhe.  Ansin bheannaigh an Tiarna Shiva a thiomantas trí fhís a thabhairt do Divyandhar.


 Ar an mbealach seo ba scéal iomlán ficseanúil é, a chuir mé siar fós tar éis 2015, agus atá curtha siar fós.





 I mí Eanáir 2016, an smaoineamh ar "Narishiktikavyam" a scríobh, nár scríobhadh ach cúpla véarsa luatha, mar gheall ar mo thaighde i mo shaol, nach bhféadfadh an fhilíocht bogadh níos faide ná sin.  Tá a réamhrá agus a rannán caibidil agam fós.


 Agus sea, an rud is tábhachtaí a thosaigh mé ag scríobh céad bliain, ba é an chéad rud a cheap mé san ainm "Naravarshatakam", 15 véarsa a scríobh mé in 2013-14 amháin.


 Ansin nuair a chuaigh mé chuig campas Bhopal Ollscoil Lárnach Sanscrait Sansthan agus bhuail mé le Shri Brij Bhushan Ojha Guru ji den chéad uair, dúirt Shri Om Ji leis go scríobhann sé filíocht Sanscrait, ansin dúirt sé, "Éist!"

 Mar sin bhí roinnt véarsaí de "Naravarshatakam" á n-aithris agam.  Ag an am sin, bhí sé ag múineadh roinnt mac léinn (mic léinn) d’Acharya a bhí ina suí sa rang.

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 Bhí buachaill Deepak, a bhí 3 rang níos óige ná mise i Narwar, ach an-mhisneach, réidh le cogadh láithreach chun a fhéinmheas a chosaint!  Agus bhí go leor cáilíochtaí den sórt sin aige, ar féidir leo croí file a mhealladh.  Shíl mé gur chóir céad bliain a scríobh air seo!

 Mar sin má deir tú cén aois eile a thosaigh tú, ansin déarfaidh mé tar éis "Naravarshaktakam" "Deepakshaktakam" an dara haois a bhí agam, atá fós neamhiomlán (60 véarsa).




 Mar sin is í "Deepakshtakam" filíocht 2013, atá fós i mo chuimhne Facebook 7 mbliana ó shin.  Ar bhealach, déanann sé an léacht "lamedharpne" céanna.  Conas a bhí mo bhliain i 2016?  Caithfidh tú a bheith ag smaoineamh air seo!  Mar sin ba í mo bhliain a chaith mé ag scríobh go leor cineálacha nathanna, soiscéal srl.

 Agus sea, rinne mé dearmad gurb é táirge 2014 - "Kalikamkeli:" - thosaigh mé ag scríobh air i Narwar.


 Agus scríobhadh a chéad chaibidil in 2014 féin, ansin in 2015 scríobh mé 3 chaibidil eile de.


 Ansin choinnigh mé orm ag smaoineamh ar an gcúigiú caibidil a scríobh, ar cheart dom scríobh nó nár cheart?  Ach ag smaoineamh anois, níl ach ceathrar go leor!  Anois gheobhaidh mé é i gcló i gceann cúpla lá!


 Acmhainn "Kalikamakeli:" Tá mo chuid filíochta 2015 ar bhealach.


 Eanáir 2016 a bhí ann, ag an am sin ní raibh aithne mhaith agam ar chlóscríobh ríomhaire, socruithe srl.

 Nó fiú mura raibh mórán ar eolas agam, níl aon dochar ann fiú!






 Chuaigh mé go dtí an Dr. Akhilesh Pandey!  Bhí teampall Shiva an-mhaith in aice lena shráidbhaile, b’éigean dó roinnt shlokas a dhéanamh a bhain le deabhóid agus adhradh an teampaill Shiva sin, agus mar sin chuaigh mé i gcomhair na hoibre céanna.


 Agus ansin thosaigh rudaí á bplé faoina dhánta scríofa, a dúirt sé - "Hey Gaud Saab! Tá an oiread sin filíochta agat, ansin ba chóir duit Gradam Sahitya Akademi a fháil i mbliana (Eanáir 2014 a bhí ann)!"


 Ach ag an am sin bhí meon beag agam!  Níor chomhaireamh mé rud ar bith fiú!  Dá bhrí sin, níor thug mé aird ar dhámhachtainí, comhdhálacha, seimineáir, comhdhálacha filí, srl.


 Sea, rud amháin eile!  Dóibh siúd a cheapann, scríobh mé an dán seanfhocal seo, ní le Dia, ansin dóibh siúd agaibh, lig dom a rá leat cé mhéad iomann a scríobhadh in 2015-16 agus 17 mbliana, agus fiú roimhe sin, deabhóid Shiva!

 Agus ní hé gur stampáil sé na seanfhoinsí, ach scríobh sé a mhothúcháin ó chroí do Shiva.  Den sórt sin mar - "Shivasya Prabhavadvayam Singharaja:" ,.  "Asambhavam Tatakripa Vinayat" "Tvmevasi Shambho" "Bilvapatra Vyam" "Kevalshulpani:" "Bhitosmi" srl. Seo dánta do Shiva.


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 Anois, má labhraím faoi Tantra, ansin scríobh mé an dán Daivandhar féin mar gheall ar mo spéis tantric.


 Cad é an modh a chiallaíonn Yaksini?  Conas ba chóir é a dhéanamh i bhfeidhm?  Cad é an mantra dofheicthe Karan?  Cad é Tantra Uddish?  Cad é Asana Siddhi?  Cad é an mantra de shlabhra?  Cad iad tréithe 14 shaol?  An chaint seo ar fad, a bhfuil eolas faighte agam air, gheobhaidh tú úsáid sa dán seo.


 Labhair faoi fhilíocht 2017, tá dearmad déanta agam anois ar an méid a scríobh mé ag an am sin, ach bhí an téacs "Bhavashree" tosaithe agam ag an am sin, atá curtha i gcrích fiú inniu!





 Níor scríobhadh an dán Sanscrait dar teideal "Chal Chaipane" ach i mí Eanáir 2014, a chuir mé i leabhar dar teideal "Kavashri:".


 Mandukamod: Scríobh mé i líon seomra Brú Campas Bhopal Kavibhaskar i mí Iúil 2015, "Nemawarbhramanam," "Sivalahari (Sivastuti)", tá siad seo le fáil i Kavyashri féin freisin.







 Is bailiúchán irise é Bhavashree.  Bhí go leor roghanna agam freisin maidir lena ainm.


 Ar dtús, bhí mé ag smaoineamh ar a ainm - "Patrika", ach ina dhiaidh sin d'ainmnigh mé 4 ainm in 2019 - 1. "Bhavabha:" 2.  "Bhavashree" 3.  "Patrapatram" 4.  "Patrika"!


 Phléigh mé é seo leis an Dr. Akhilesh Pandey.  D'iarr sé an t-ainm "Patrapatram" a mheas!  A d’iarr ar Sritryambakeshwar Chaitanya Swamiji, ansin thug sé an t-ainm Bhavashri de réir mar is cuí.  Déanta na fírinne, bhí mé féin ag iarraidh "Bhavashree:" agus "Bhavabha:" a ainmniú, mar sin shíl mé go raibh sé oiriúnach "Bhavashri:" a ainmniú.


 I mí Feabhra 2020, foilsíodh na ceithre dhán seo - Mere, Bhavashri, Vandyashree agus Kavashree agus Pitrishtakam.





 "Pitrishtakam" a scríobh mé in Ashwin Navaratri de 2015.  Rud a rinne mé dearmad a lua níos luaithe.



 Thosaigh mé "GaneshShatkam" timpeall Márta 2015, le 15 véarsa scríofa ag an am céanna.  Ansin 10 véarsa in 2017 agus 20 véarsa in 2019.  Go dtí seo, tá thart ar 52 véarsa aige, cuirfidh mé i gcrích é an mhí seo.






 Scríobh mé "Kalpakarashatakam" sa chéad trí lá den Navratri deireanach seo (2020 Chaitra).



 Scríobh 50 véarsa chuig Pratipada, 5 chuig Dwitiya, agus 52 véarsa chuig Tritiya, mar sin tá 108 rann aige, a phriontálfaidh a luaithe a osclaítear an glasáil.




 Mo shaothair fhileata eile a rinneadh agus mé i mo chónaí i Bhopal, foilseoidh mé iad a luaithe is féidir.


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 © Dr. Himanshu Gaur

 Am agus Dáta Scríbhneoireachta 09:00 AM, 07/08/2020, Ghaziabad. Uttar Pradesh, India

Tuesday, April 7, 2020

मेरी संस्कृत काव्य रचनाएं : हिमांशु गौड़



२००५-०६ में (उत्तरमध्यमा प्रथम वर्ष) मैंने एक संस्कृत गीत लिखा -

"प्राक्कालश्च हा यस्स नष्ट: कथं,
       कोऽपि नो वेत्ति वा चास्य गूढव्यथाम् "।
****

इसके बाद 2007 में "रेतश्शक्तितत्त्व" पर मैंने ७-८ श्लोक लिखे थे।

फिर 2007 में ही मैंने एक महाकाली के युद्ध का वर्णन पंचचामर छंद के श्लोकों से किया था ।

और उसके बाद (२००७-८ में ही) गदर फिल्म के नल उखाड़ने वाले सीन को मैंने संस्कृत के श्लोकों (पंचचामरछंद) में पिरोया था।



- "

2007 में ही मैंने अपने एक मित्र को संस्कृत श्लोकात्मक पत्र लिखा था । वह मित्र भागवत कथा वाचक था , और वह पत्र शार्दूल विक्रीडित छंद में था।

२००८-९-१० , मेरा व्याकरण (भाष्य,शेखर,मनोरमा,कौण्डभट्ट), वेदांत (वेदांतसार, पंचदशी, ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य) सांख्य (सांख्यकारिका,सांख्यतत्वकौमुदी) और न्यायसिद्धांतमुक्तावली का अनुमान खंड (चूंकि प्रत्यक्ष खंड मध्यमा में पढ़ चुके थे) पढ़ने-पढ़ाने में ही व्यतीत हुआ , इसलिए श्लोक बनाने से विरति हो गई थी।




उस वक्त मेरी दिनचर्या कुछ अस्त-व्यस्त सी हो गई थी , जब मुझसे इस बारे में पूछा तो मैंने
2009 में जो स्वरचित पंक्ति मैंने सबसे पहले श्रीबाबा गुरु जी को सुनायी थी वह थी -

"अस्तव्यस्तसमस्तजीवनदशा केनापि न त्यज्यते"

तब श्रीबाबा गुरु जी ने उसको पूरा श्लोक बनाकर मुझे दिया था , जो अभी फिलहाल मेरे याद नहीं।





शास्त्री द्वितीय वर्ष (B.A. second year) के बाद मेरी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गई , तो बाबा गुरु जी ने मेरे विषय एक श्लोक बनाया और मेरे कमरे में उस पर्चे को फेंक कर चले गए !
जब मैंने कुछ समय बाद उस पर्चे को उठाकर देखा , उसकी यह पंक्ति ही मेरे याद है -

 मन्येऽसौ युवक: प्रमादवशतोऽ....

*******
 2012 में कुछ मौका मिला , तो मैंने अनेक विषयों में उस समय श्लोक लिखे थे, जोकि असावधानी और महत्त्व न जानने के कारण सब कुछ नष्ट हुए।

"श्रीओमो व्याकुलस्तत्र जापानं यास्यते मया।
औषधिभक्षणं कृत्त्वा शतश:......"

ये उसी समय का एक श्लोक अभी याद आया।

 उसके बाद मैंने डायरी बनाकर लिखना शुरू किया।

"शिरोभेदनशतकम्" मैंने सन् 2015 के मार्च में लिखा छात्रावास में रहते हुए!

दिल्ली निर्भया कांड से मन बहुत विचलित था, मन में था इस पर कुछ लिखूंगा ।

तब "बलात्कारशतकम्" मैंने सितंबर 2015 में लिखा ,कविभास्कर छात्रावास कमरा नंबर 135 में ।

उस दिन मेरे मित्र अंकुरपांडे जी का जन्मदिन था।

 "शिरोभेदनशतकम्" मैंने दो बैठकों में लिखा था ! मतलब एक बार बैठा तो 75 श्लोक , अगले दिन १:३० घंटे के लिए बैठा तो 35 श्लोक,  इस तरह से।

जब सब लोग अंकुर पांडे जी के बर्थडे में हैप्पी बर्थडे टू यू बोल रहे थे , उस समय, मैं बैठा हुआ "बलात्कारशतकम्" लिख रहा था ।

इस शतक में बलात्कार रूपी समस्या का कारण क्या है ? और निवारण क्या है ? इसके संबंध में 100 श्लोकों में विचार किया गया है ।

 ये वही दिन थे , जब मेरी नवीन तिवारी जी के साथ नयी पहचान हो चुकी थी , और हम साथ साथ ही मोटू होटल चाय पीने जाते थे ।

 फिर मैंने उसी समय ही "भाति नो भारतम्" नामक संस्कृत काव्य भी शुरू कर दिया था। जिसके उस समय ही मैंने लगातार 35 श्लोक लिखे थे ।



मेरा सबसे महत्वपूर्ण काव्य "नरवरगाथा", - यह मैंने आश्विन नवरात्र 2014 में शुरू किया था,
इसके आदिम  "छात्रकौतुककाण्ड" की शुरुआत मैंने गजरौला में एक अपने जजमान के घर बैठकर ही शुरू की , उसके बाद अपने घर आकर "भूतकाण्ड" और "प्रकृतिकाण्ड" के कुछ श्लोक लिखे !  वैदुष्यकाण्ड के कुछ श्लोक भी लिखे!
 वर्चस्वकाण्ड के कुछ श्लोक मैंने 2017 में लिखें! जब मैंने इसकी शुरुआत की तो इसमें लगभग 14 काण्ड मैंने सोचे थे , लेकिन फिर मैंने सोचा , कांड तो खुद ही बड़े बड़े होते हैं , इसलिए इनको सिर्फ 5 काण्ड में ही रखा जाए ।




इसलिए यह पांच कांड ही इसमें प्रमुख "छात्रकौतुककाण्ड" "भूतकाण्ड" "प्रकृतिकाण्ड" "वैदुष्यकाण्ड" और "वर्चस्वकाण्ड" ।
भूतकाण्ड का श्लोक देखिए -

 "प्रेतैर्यदा नरवरस्य च पीडितस्त्वं
             रात्रौ भविष्यसि पुनर्न हसिष्यसीत्थं
 आतङ्कमीदृशमहं परिदृष्टवांश्च
          काले गते बहुतिथेपि भयं न नष्टम् ।।"

*****
"शैवीचर्चा" "विद्वद्धर्षिकाव्यम्" "जीवनशतकम्" जैसे कई काव्यों को मैं अगस्त 2015 में बिल्कुल शुरू कर चुका था ।
 "विद्वच्छतकम्" "वीरशतकम्" और "धनिकशतकम्" लिखने का विचार मैंने जुलाई 2014 में ही बना लिया था , जबकि इन तीनों शतकों के लगभग 25-25 श्लोक भी उसी समय मैंने लिख लिए थे , जो आज भी मेरी किसी पुरानी डायरी में हैं ।

"अमिताभबच्चनशतकम्" "संस्थानशतकम्" "" ये मेरे मार्च २०१५  में लिखे हुए काव्य हैं,
अमिताभबच्चनशतकम्" में उस वक्त ३५ श्लोक और "संस्थानशतकम्" में ४० श्लोक लिख कर चुप बैठ गया था।

उसके बाद अमिताभ बच्चन शतक के 20 श्लोक और भी, मैंने सन् 2016 में लिखे थे। मतलब इस तरह से अमिताभ बच्चन शतक के 60 श्लोक ही मेरे पास अभी तक है संस्थानशतक को मैंने दोबारा उससे आगे देखा ही नहीं , अभी तक वह मेरे पुराने कागजों में अभी तक दबा पड़ा हुआ है।

हां , शिवलहरी मैंने जुलाई 2015 में लिखी थी । यह मुझे अभी याद आया,  क्यों ? क्योंकि उसी समय मैंने कृतिदेव में टाइपिंग सीखी थी , और मैं अपने लैपटॉप पर बैठा हुआ जुलाई 2015 में शिव लहरी के 19 श्लोकों की टाइपिंग कर रहा था ।

 "पातालदैव्यन्धरी" नामक काव्य ग्रन्थ की कल्पना ने मेरे दिमाग में 2013 के उत्तरार्ध में जन्म लिया ।
यही नाम था शुरुआती तौर पर मेरे इस ग्रंथ का ।
2014 के नवंबर-दिसंबर में मैंने इस ग्रंथ की शुरुआत की !
और उस समय जबकि मेरी श्लोक लिखने की क्षमता कुछ भी नहीं थी उस दौर में भी मैंने 2 दिन में ५५ श्लोक लिखे,  जोकि भुजंगप्रयात, इंद्रवज्रा , उपजाति , उपेंद्रवज्रा आदि छंदों में थे , और आज भी मेरी एक बहुत पुरानी डायरी में लिखे हुए हैं ।

2015 के नवंबर महीने में इसी (दैव्यन्धर) काव्य के दो काव्य बनाने का मेरे मन में विचार उठा।
 मैंने सोचा "पातालदैव्यन्धरी" नाम कुछ बड़ा है , इसलिए "दैव्यन्धरीकथा" गद्यकाव्य और "दैव्यन्धरं काव्यम्" पद्यात्मक , यह दो तरह से मैंने विभाग किया।


 उसके बाद 2015 में ही "नरवरप्रेतीयम्" गद्यकाव्य के चार-पांच गद्यांश भी लिखें ।

यह वही समय था जब मैं "दैव्यन्धरी-कथा" के भी 5 गद्यांश लिख चुका था !
उसके बाद इस कथा के 2-3 गद्यांश मैंने 2017 में भी लिखे थे ! ओह , मैं भूल गया था  कि दिव्यन्धर काव्य को गद्य और पद्यात्मक दो विभाग करने का विचार मेरा 2015 का नहीं , बल्कि 2014 का ही था।

 क्योंकि तभी से मैं गद्य और पद्य दोनों में दिव्यन्धर के चरित्र को लिख रहा था ।

इसकी मैं थोड़ी सी कथा आपको बताता हूं।
 दिव्यन्धर, एक ब्राह्मण ! जो कि शिव का भक्त है ! तैरने में निपुण है ! शास्त्रों का व्याख्याता है और तंत्र साधना में रत रहता है!


 वह एक बार घोर जंगल में बैठा हुआ साधना कर रहा होता है,  तभी एक यक्षिणी प्रकट होकर उसे पाताल के जंगल में फेंक देती  है । जहां उसका युद्ध होता है , एक पिशाचराज से ।

उस समय जब युद्ध हो रहा होता है। उसी जंगल से कुछ दूरी पर भगवान शिव , जो कि उस समय 14 लोकों का भ्रमण करते हुए पाताल लोक में ठहरे हुए थे । उनको यह बात पता चली ।
वे राजा बलि की नगरी की तरफ पहुंचें। वहां राजा बलि ने उनका स्वागत किया। तब दिव्यन्धर को दर्शन देकर भगवान् शिव अपने भक्ति का आशीर्वाद दिया ।

 इस तरह से यह पूर्णतया काल्पनिक कथा थी ,जो अभी भी 2015 के बाद मैंने स्थगित कर दी थी, और अभी तक स्थगित है।


2016 जनवरी में "नारीशक्तिकाव्यम्" लिखने का विचार बनाया , जिसके कुछ ही शुरुआती श्लोक लिखे थे, मेरे जीवन के किसी शोध में लग जाने के कारण वह काव्य उससे आगे नहीं बढ़ पाया। उसकी प्रस्तावना और अध्याय विभाजन आज भी मेरे पास है।

 और हां , सबसे मुख्य बात मैंने जो शतक लिखने की शुरुआत की , उसमें सबसे पहले जो मैंने नाम सोचा वह "नरवरशतकम्" था , जिसके १५ श्लोक मैंने २०१३-१४ में ही लिखे थे।

फिर जब मैं राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय भोपाल परिसर में जाकर पहली बार श्री बृजभूषण ओझा गुरु जी से मिला, तो उनको श्रीओम जी ने बताया कि ये संस्कृत काव्य लिखते हैं , तो उन्होंने कहा कुछ सुनाइए !
तो मैंने "नरवरशतकम्" के कुछ श्लोक सुनाए थे। उस समय वे क्लास में बैठे हुए आचार्य के कुछ छात्रों (छात्राओं) को पढ़ा रहे थे।
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 एक लड़का दीपक था , जो कि क्लास में मुझसे नरवर में 3 क्लास छोटा था, लेकिन बड़ा ही साहसी , अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए तत्काल युद्ध के लिए तैयार! एवं उसके अनेक ऐसे बहुत से गुण थे , जोकि एक कवि हृदय को आकर्षित कर सकते हैं । मैंने सोचा इसके ऊपर ही एक शतक लिखा जाए!
तो अगर आप कहें कि आपने कौन से दूसरे शतक का प्रारंभ किया तो मैं कहूंगा कि "नरवरशतकम्" के बाद "दीपकशतकम्" ही मेरा दूसरा शतक था , जो कि आज भी अधूरा (४० श्लोक मात्र) है।


 तो "दीपकशतकम्" 2013 का ही काव्य है जोकि मेरी फेसबुक मेमोरी में आज भी 7 साल पहले का आ जाता है। यह भी एक तरह से "लंगड़धारीपने" का व्याख्यान सा  ही करता है। 2016 सन् मेरा कैसा गया? यह आप सोच रहे होंगे ! तो बहुत प्रकार के भाव सहित, सूक्ति आदि लिखने में यह मेरा साल व्यतीत हुआ!
 और हां , एक तो भूल ही गया सन् 2014 की ही उपज है - "कलिकामकेलि:" - इसको मैंने नरवर में ही लिखना शुरू कर दिया था।

 और इसका प्रथम अध्याय 2014 में ही लिखा जा चुका था , फिर 2015 में मैंने इसके 3 अध्याय और लिखें ।

फिर पांचवा अध्याय लिखने की सोच रखा,  लिखूं या ना लिखूं? लेकिन अब सोच रहा हूं, चार ही पर्याप्त हैं! अभी इसे ऐसे ही छपवा दूंगा थोड़े दिनों में !

मतलब "कलिकामकेलि:" मेरा 2015 का काव्य है एक तरह से।

यह 2016 की जनवरी की बात है , उस समय मैं कंप्यूटर टाइपिंग, सेटिंग आदि ज्यादा अच्छी तरह नहीं जानता था।
 या यूं कहूं कि बिल्कुल कम ही जानता था , तो भी कोई हर्ज नहीं !



मैं डॉ. अखिलेश पांडे जी के पास गया! उनके गांव के पास ही एक बहुत अच्छा शिव मंदिर था उन्हें उसी शिव मंदिर की भक्ति, आराधना संबंधी कुछ श्लोक मुझसे बनवाने थे , सो मैं उसी कार्य के लिए गया था।

 और फिर बातों-बातों में ही अपने लिखे काव्यों की चर्चा होने लगी , उन्होंने कहा - "अरे गौड़ साब! आपके इतने काव्य हैं , तो आपको तो इसी साल (जनवरी २०१६ का समय था वह) साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाना चाहिए!"

 पर उस समय मेरा ज़रा फक्कड़ स्वभाव था! मैं किसी चीज को भी गिनता नहीं था! इसलिए पुरस्कार, सम्मेलन , संगोष्ठी , कवि सम्मेलन , आदि पर मेरा ध्यान नहीं था ज़रा भी।

हां , एक बात और ! जो लोग सोचते हैं , मैंने सिर्फ लौकिक काव्य यह लिखे हैं , भगवान के लिए नहीं , तो उनके लिए मैं बता दूं,  कि सन् 2015-16 और 17 इन सालों में, और पहले भी,  शिव भक्ति के न जाने कितने स्तोत्र लिखे हैं !
और यह नहीं है की पुराने स्रोतों की टीपा-टापी कर दी , बल्कि शिव के लिए जो अपने हार्दिक भाव हैं वे लिखे हैं । जैसे - "शिवस्य प्रभावाद्वयं सिंहराजा:", । "असम्भवं तत्कृपया विनैतत्" "त्वमेवासि शम्भो" "बिल्वपत्रा वयम्" "केवलश्शूलपाणि:" "भीतोस्मि" इत्यादि यह सब शिव के  ही लिए कविताएं हैं।




अब अगर तंत्र की बात करें , तो दैव्यन्धर काव्य मैंने लिखा ही अपनी तांत्रिक रुचि के कारण है।

यक्षिणी साधन की विधि क्या है ? उसको कैसे स्थान पर करना चाहिए? अदृश्य करण मंत्र क्या है? उड्डीश तंत्र क्या है ? आसन सिद्धि किसे कहते हैं ? जंजीर का मंत्र क्या होता है ? 14 लोकों की विशेषताएं क्या है ? यह सब बात,  जो मैंने ज्ञान हासिल किया , उसका प्रयोग इस काव्य में आपको देखने को मिलेगा।

बात करें अगर 2017 के काव्यों की, तो अभी तो मैं खुद भूल गया हूं कि मैंने उस समय क्या-क्या लिखा था , लेकिन "भावश्री" ग्रंथ की शुरूवात मैं उस समय कर चुका था,  जो कि आज पूरी भी हो चुकी है!


"चल चायपाने" नामक संस्कृत कविता जनवरी २०१७ में ही लिखी थी, जो कि "काव्यश्री:" नामक ग्रंथ में मैंने रखी है।

मण्डूकमोद: मैंने जुलाई 2015 में भोपाल कैंपस कविभास्कर छात्रावास के कक्ष संख्या में लिखा था, यह "नेमावरभ्रमणम्,"  "शिवलहरी (शिवस्तुति)" , ये भी काव्यश्री में ही निहित हैं।





 भावश्री एक पत्रकाव्यसंग्रह है । इसके नाम के संबंध में भी मेरे मन में अनेक विकल्प आए ।

सबसे पहले मैं इसका नाम सोच रहा था - "पत्रकाव्यसंग्रह" , लेकिन उसके बाद में 4 नाम मैंने डिसाइड किए 2019 में - १."भावभा:" २. "भावश्री" ३. "पत्रपात्रम्" ४. "पत्रपेटिका" !

डॉक्टर अखिलेश पांडे जी से विमर्श किया इस विषय में । उन्होंने "पत्रपात्रम्" नाम पर विचार करने को कहा ! जोकि श्रीत्र्यंबकेश्वर चैतन्य स्वामी जी से पूछा, तो उन्होंने भावश्री नाम उचित बताया । असल में मुझे भी "भावश्री:" और "भावभा:" यह दो नाम ही जंच रहे थे,  इसलिए मैंने "भावश्री:"  नाम रखना उचित समझा।

फरवरी 2020 में मेरे , भावश्री, वन्द्यश्री और काव्यश्री और पितृशतकम् - ये चार काव्य प्रकाशित हो चुके हैं।



"पितृशतकम्" मैंने २०१५ के आश्विन नवरात्र में लिखा था। जिसका जिक्र मैं पहले करना भूल गया था।


"गणेशशतकम्" मैंने मार्च 2015 के लगभग ही शुरू किया था, जिसके 15 श्लोक उसी समय लिखे थे । फिर 10 श्लोक 2017 में और 20 श्लोक सन् 2019 में । अभी तक उसमें लगभग 52 श्लोक हैं , इसी महीने उसे पूरा कर दूंगा।




"कल्पनाकारशतकम्" मैंने इसी विगत नवरात्रि (२०२० चैत्र) के प्रारंभिक तीन दिनों में लिखा है।


प्रतिपदा को ५० श्लोक , द्वितीया को ५ , और तृतीया को ५२ श्लोक लिखे, इस तरह इसमें १०७ श्लोक हैं, जो लाकडाउन खुलते ही छपवा डालूंगा।

मेरी अन्य भोपाल में रहकर की गई जो काव्य रचनाएं थी , उनका भी मैं यथाकाल प्रकाशन करवाऊंगा।

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© डॉ हिमांशु गौड़
लेखन समय और दिनांक  -०९:०० पूर्वाह्ण, ०८/०४/२०२० , गाजियाबाद।

श्रीबलरामस्तुति: संस्कृत कविता : डॉ हिमांशु गौड़

।।श्रीबलरामस्तुति:।।
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हे कृष्णाग्रज! शेषनागबलराट्! हे दिव्यलोकाधिप!
हे नारायणसौख्यदायिशयन! श्रीमद्गुरोस्सुप्रिय!
हे पृथ्वीधरण! प्रभो! हरिनिभाभासैस्समुद्भासित!
हे हे द्वापरमल्लयुद्धकरण! श्रीमद्धलिन् ते नमः।।१।।

हे कृष्णस्य पदं पदं प्रतिपदं साहाय्यसन्तत्पर!
हे नानासुरघातका!ऽतिभयद!न्यायप्रिया!ऽन्यायहृत्!
त्वं दुर्योधनभीमशिक्षणरतो हे विप्रगोरक्षक!
मद्बुद्धिं कुरु सत्यधर्मशरणे सङ्कर्षण!ऽऽकर्षण!!२!!


धर्मस्थापनतत्परश्शिवकरश्शम्भुप्रियश्श्रीयुतस्-
त्वं नानाविधयुद्धकौशलपरस्त्वं चासि नीलाम्बरस्-
त्वं दैन्यादिविदारकोऽतिविमलस्त्वं सर्वसम्पालकस्-
त्वं हर्यङ्ग इवैव भासि बलराट्! त्वं मेऽसि पूज्यस्सदा।।३।।

हे मेघद्युतिवस्त्रवेष्टिततनुर्हे हेममालिन्! प्रभो!
त्वम्पीताम्बरसुप्रियो मम शुभं धत्से व्रजे भ्राम्यसि
वैशम्पायन-सुप्रसन्न-वरदस्त्वं हेममाली महान्
त्वं सर्वं श्रुतिशास्त्र-तत्त्वमपि भो: भाषेस्सहस्रै: फणै:।।४।।

त्वं दिव्यश्रुति-वर्णि-तत्त्व-शरणस्त्वं यज्ञसंरक्षक:
त्वं सूर्यादि-जगत्प्रकाश-पदवी-लोकैस्समालोकित:
हे रामानुज-रूप-लक्ष्मणगुरो! त्रेतायुगे वर्तित!
हे फुङ्कार-विदग्ध-लोक! तव वै भक्तौ वयं संरता:।।५।।

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© डॉ. हिमांशु गौड़
०१/०२ मध्याह्ने, ०७/०४/२०२०, गाजियाबादस्थसदने।